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________________ भ्रम भी हो, परन्तु फिर भी वह सत्य का खोजी है। जो सत्य है वह मेरा है, यत्सत्यं तन्मम यही उसके अन्तरात्मा की आवाज होती है। वह जीने के लिए खाता है। न कि खाने के लिए जीता है। वह अपने ज्ञान का उपयोग मुख्यतया लोकैषणा, वित्तेषणा, भोगैषणा, पुत्रैषणा, काम-क्रोध, मद-लोभ, मोह की पोषणा के लिए नहीं, अपितु आध्यात्मिक विकास के लिए उपयोग करता है। जब कि मिथ्यादृष्टि अपने ज्ञान का उपयोग उपर्युक्त दोषों के पोषण के लिए करता है। सम्यग्दृष्टि का ध्येय सही होता है जबकि मिथ्यादृष्टि का ध्येय मूलतः ही गलत होता है। आत्मा में कितना ज्ञान का अक्षय भण्डार है, यह नन्दी सूत्र के अध्ययन, श्रवण, मनन, चिन्तन, एवं निदिध्यासन से ही मालूम हो सकता है। नन्दीसूत्र में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव तथा केवलज्ञान का विस्तृत वर्णन है। पहले चार ज्ञान कम-से-कम कितने हो सकते हैं, और उत्कृष्ट कितने महान, इसका समाधान नन्दीसूत्र में मिल सकता है। जो कि अपने आप में पूर्ण है, जिसमें न्यूनाधिकता न पाई जाए, वह कौन सा ज्ञान है, यह अध्ययन करने से ही मालूम हो सकता है। यद्यपि साकारोपयोग में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान अन्तर्भूत हो जाते हैं, तदपि इसमें सम्यक्श्रुत होने से मात्र पांच ज्ञान का ही मुख्यतया विवेचन किया गया है, अज्ञान का नहीं। - अन्यान्य आगमों में ज्ञान और अज्ञान का विवेचन संक्षेप से वर्णित है। नन्दी सूत्र में पांच ज्ञान का सविस्तर विवेचन है, अन्य आगमों में इतना विस्तृत वर्णन नहीं है। शास्त्र और सूत्र शास्त्र न कागज का नाम है, न स्याही का, न लिपि और भाषा का। यदि इनके समुदाय को शास्त्र कहा जाए तो कोकशास्त्र तथा अर्थशास्त्र भी शास्त्र कहलाते हैं। ऐसे लौकिक शास्त्र से यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। 'शासु' अनुशिष्टौ धातु से शास्ता, शास्त्र, शिक्षा, शिष्य और अनुशासन इत्यादि शब्द बनते हैं। शास्ता उसे कहते हैं-जिसका जीवन उन्नति के शिखर पर पहुँच चुका है, जिसके विकार सर्वथा विलय हो गए हैं। तथा जिसका जीवन ही शास्त्रमय बन चुका है, इसी दृष्टि से श्रमण भगवान् महावीर को भी औपपातिक सूत्र में शास्ता कहा है। वे भव्य जीवों को सन्मार्ग पर चलने वाली शिक्षा देते थे अर्थात् सत् शिक्षा देने वाले को शास्ता कहते हैं। उनके प्रवचन को शास्त्र कहते हैं, अनुशासन में रहने वाले को शिष्य कहते हैं। जिससे वह अनुशासन में रहने के लिए संकेत प्राप्त करता है, शिक्षा कहते हैं। केवली या गुरु के अनुशासन में रहना ही धर्म है। शास्त्र से हित शिक्षा मिलती है। हित शिक्षाओं का ग्रहण तभी हो सकता है जब कि शिष्य अनुशासन में रहे, वरना वे शिक्षाएं जीवन में उतर नहीं सकतीं। “शासनाच्छास्त्रमिदम्" शिक्षा देने के कारण नन्दीसूत्र भी शास्त्र कहलाता है। - *45*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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