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________________ कारण है और ज्ञान कार्य है, आत्मशुद्धि के शेष सभी साधनों का मूल कारण ज्ञान है इसीलिए नन्दी सूत्र को 'मूल' कहते हैं। सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान विश्व के अनन्त-अनन्त पदार्थ जैनदर्शनकारों ने नवतत्त्वों में विभाजित कर दिए हैं। वे नव तत्त्व सदाकाल भावी हैं, उनसे कोई तत्त्व बाहिर नहीं रह जाता। सभी का अन्तर्भाव नौ में ही हो जाता है। जैसे कि जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और पंचास्तिकाय का अन्तर्भाव भी उक्त नौ में ही हो जाता है। इनका स्वरूप यथातथ्य जानने व समझने के लिए प्रमाण-नय, निक्षेप तथा असाधारण लक्षण हैं। जीव चेतन स्वरूप है, वह न अन्य द्रव्यों के गुण ग्रहण करता और न अपने गुणों से विहीन होता है। उसमें ज्ञानशक्ति सदाकाल से विद्यमान है। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से उसका महाप्रकाश आवृत्त हो रहा है, किन्तु फिर भी ज्ञानप्रकाश सर्वथा आवृत्त नहीं होता, यत् किंचित् सदासर्वदा अनावृत्त ही रहता है, इसको सर्वतो जघन्य क्षयोपशम भी कहते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अनन्त प्रकार का है। ज्यों-ज्यों क्षयोपशम अधिक होता है, त्यों-त्यों ज्ञान की मात्रा बढ़ती ही जाती है। इस प्रकार ज्ञान की न्यूनाधिकता से या ह्रास - विकास से क्रमश: अज्ञानी व ज्ञानी जैनदर्शन स्वीकार नहीं करता । वह एक डी. लिट् को भी अज्ञानी मानता है और किसी अपठित व्यक्ति को भी ज्ञानी मानता है। इस मान्यता के पीछे दर्शन मोह और चारित्र मोह की ऐसी प्रकृतियों को स्वीकार करता है, जिनके कारण प्रचुर मात्रा में ज्ञान होते हुए भी अज्ञानी मानता है, जैसे नेत्रों की दृष्टि ठीक होने पर भी गलत चश्मा लगा देने से गलत नजर आता है। ठीक वैसे ही मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान- दृष्टि विपरीत हो जाती है। जहाँ तक मिथ्यात्व का उदय भाव है, वहाँ तक जीव अज्ञानी ही बना रहता है और उसके सर्वथा उदयाभाव में ज्ञानी। सम्दग्दर्शन के होते हुए जीव ज्ञानी कहलाता है। ▸ सम्यग्दर्शन का साहचर्य्य सम्यग्ज्ञान से है और मिथ्यात्व का साहचर्य्य मिथ्याज्ञान से है। अदेव में देव बुद्धि, कुगुरु में गुरु, धर्माभास में धर्म, कुशास्त्र में सच्छास्त्र बुद्धि अथवा देव में अदेव बुद्धि, सुगुरु में कुगुरु, धर्म में अधर्म, सत्शास्त्र में कुशास्त्र बुद्धि रखना, ये सब मिथ्यात्व के लक्षण हैं। उस समय मति, श्रुत और अवधि ये तीनों अज्ञान कहलाते हैं और अज्ञान का फल संसार है। मिथ्याज्ञान उन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति कराता है, संसार का तथा कर्म बन्ध का मूलकारण है और अनन्त दुःख का हेतु है । जब कि सम्यग्ज्ञान सन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति कराता है, मोक्ष एवं अनन्त सुख का हेतु है । अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मोत्थान, आत्मविकास और सभी विकारों का शमन हो, वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। संसार वृद्धि एवं दुर्गति में पतन कराने वाला ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है। हो सकता है, क्षयोपशम की न्यूनता से तथा बाह्य सामग्री की न्यूनता से सम्यक्त्वी जीव को किसी विषय में संशय हो, स्पष्टतया भान न हो, *44
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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