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________________ " संहिया य पदं चेव, पयत्थो पयविग्गहो । चालणा या पसिद्धिय, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥ " इस प्रकार की व्याख्या शैली को अनुगम कहते हैं । ४. नय- - नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन नयों की दृष्टि से जो नन्दी पत्राकार अथवा जो कण्ठस्थ है, कोई व्यक्ति उसकी पुनरावृत्ति कर रहा है, किन्तु उसमें उपयोग नहीं है, वह भी नन्दी है । ऋजुसूत्र नय, पुस्तकाकार या पत्राकार को नन्दी नहीं मानता। हाँ, जो नन्दी का अध्ययन कर रहा है, भले ही उसमें उपयोग न हो, फिर भी वह नन्दी है, यह नय कण्ठस्थ विद्या को विद्या मानता है । शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन नय अनुपयुक्त समय में नन्दी नहीं मानते । जब कोई उपयोगपूर्वक अध्ययन कर रहा हो, तभी उसे नन्दी मानते हैं, क्योंकि आनन्द की अनुभूति उपयोग अवस्था में ही हो सकती है, अनुपयुक्तावस्था में नहीं, आनन्द से नन्दी की सार्थकता होती है । जिस समय आत्मा आनन्द से समृद्ध नहीं होता, वह नन्दी नहीं । यह है नन्दी शब्द के विषय में नयों का दृष्टिकोण, यह है उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय की दृष्टि से नन्दी की व्याख्या | नन्दी को मूल क्यों कहते हैं ? उत्तराध्ययन, दशवैकालिक. अनुयोगद्वार और नन्दी इन सूत्रों को मूल संज्ञा दी गई है। आत्मोत्थान के मूलमंत्र चार हैं, जैसे कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप । उत्तराध्ययनसूत्र सम्यग्दर्शन, चारित्र और तप का प्रतीक है । दशवैकालिकसूत्र - चारित्र और तप का । अनुयोगद्वार सूत्र श्रुतज्ञान का और नन्दीसूत्र पांच ज्ञान का प्रतिनिधि है । इस दृष्टि से नन्दी की गणना मूल सूत्रों में की गई है। सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान नहीं, अपितु अज्ञान होता है। जहां ज्ञान है, hani निश्चय ही सम्यग्दर्शन है। ज्ञान के बिना चारित्र नहीं । चारित्र और तप की आराधनासाधना ज्ञान के द्वारा ही हो सकती है। चारित्र और तप ये इहभविक ही हैं, किन्तु ज्ञान साधक अवस्था में मोक्ष का मार्ग है और सिद्ध अवस्था में यह आत्मगुण है। ज्ञान इहभविक भी है, पारभविक भी और सादि अनन्त भी । नम्दी सूत्र में पाँच ज्ञान का स्वरूप वर्णित है। ज्ञानगुण जीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता । ज्ञान स्व-प्रकाशक भी है, और पर - प्रकाशक भी। पारमार्थिक हित-अहित, अमृत-विष, सन्मार्ग-कुमार्ग का ज्ञान सम्यग्ज्ञान से ही हो सकता है, अज्ञान से नहीं, कुत्सित ज्ञान को अज्ञान कहते हैं। वह आत्मोत्थान में अकिंचित्कर है, अज्ञान किसी को भी प्रिय नहीं, किन्तु ज्ञान सब को प्रिय है। ज्ञान की परिपक्वावस्था विज्ञान है और विज्ञान की परिपक्वावस्था को चारित्र कहते हैं। चारित्र आत्मविशुद्धि का अमोघ साधन है । सम्यग्दर्शन *43
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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