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का कारण बना हुआ है, वे मनुष्य केतुभूत हैं। ऐसा पद से अर्थ झलकता है, तत्त्व केवलिगम्य
६. राशिबद्ध-अढाई द्वीप में गर्भज मनुष्यों की गणना जघन्य 222222222222222222 22222222222 हो सकती है, इससे न्यून नहीं। मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या 99999999999 999999999999999999 इतनी हो सकती है इससे अधिक नहीं। समूर्छिम मनुष्यों का उत्कृष्ट 24 मुहूर्त का अभाव भी हो सकता है। उनकी सत्ता जघन्य एक, दो यावत् संख्यात, असंख्यात, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं उतने असंख्यात सम्मूर्छिम उत्कृष्ट हो सकते हैं, इसे राशिबद्ध कहते हैं।
७. एकगुण-मनुष्यों में सब थोड़े परमावधिज्ञानी, विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी, सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत, शुक्ललेश्या सहित जन्म लेने वाले, चरमशरीरी, अभव्य, केवलज्ञानी, अप्रमत्तगुणस्थानापन्न पुलाकनियंठा, मन:पर्यवज्ञानी, छेदोपस्थानीय चारित्री, द्वादशांगणिपिटक के वेत्ता, आहारक लब्धिसंपन्न, जंघाचारण-विद्याचरण लब्धिवाले संयत, संभव है इस प्रकार के मिलते-जुलते अनेक विषय इस अधिकार में हों। मनुष्यों में जो स्वल्प से स्वल्प हैं, भले ही वे अच्छे हों या बुरे उनकी गणना इस अधिकार में की गई है।
८. द्विगुण-उपश्रेणी की अपेक्षा क्षपकश्रेणि वाले द्विगुणित, सर्वविरति की अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य द्विगुणित, तीर्थंकर के होते हुए उनके शासन में मुनियों की अपेक्षा मोक्ष में जाने वाली श्रमणी-वर्ग द्विगुणित। जैसे भगवान महावीर के शासन में 700 साधु और 14 सौ साध्वीवृन्द ने केवलज्ञान एवं मोक्ष प्राप्त किया। संभव है इस अधिकार में एतद् विषयक वर्णन हो।
९. त्रिगुण-संयतों की अपेक्षा साध्वियां त्रिगुण हों, जघन्य आराधक त्रिगुण हों। आराधकों की अपेक्षा विराधक संयमी त्रिगुण हों, क्षायिक-सम्यग्दृष्टि मनुष्य की अपेक्षा क्षयोपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य त्रिगुण हों, सर्वार्थसिद्ध महाविमान से च्युत हुए मनुष्य की अपेक्षा चार अनुत्तर विमान से च्युत हुए मनुष्य त्रिगुण हों, संभव है इस प्रकार के वर्णन करने वाला अधिकार यही हो। ___ १०. केतुभूत-जो मनुष्य अपने कुल, गुण, राष्ट्र तथा युग में ध्वजा की भांति सर्वोपरि है-जैसे कि तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, गणधर, आचार्य, उपाध्याय, सेठ, सेनापति, इत्यादि पदाधिकारी मनुष्य केतुभूत कहलाते हैं। संभव है इस अधिकार में केतुभूत-ध्वजा -सदृश मनुष्यों का तथा तत्सदृश बनने के उपायों का वर्णन हो।
११. प्रतिग्रह-इस शब्द का अर्थ होता है स्वीकार करना, व्रत धारण करने पश्चात् उत्थान-पतन, स्खलना, आराधना-विराधना, सातिचार-निरतिचार, सदोष-निर्दोष चारित्र पाला जा रहा है इस कारण उस भव में विशिष्ट चारित्र के अभाव होने पर जीव को पुनः भव भ्रमण करना पड़ता। उसी भव में कर्मों पर विजय न होने से वह विरति मनुष्य सिद्धिगति को प्राप्त
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