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न कर सका, इसी प्रकार विरताविरति मनुष्य के विषय में समझ लेना चाहिए। सातिचार श्रावकवृत्ति पालकर जीव तीसरे भव में मोक्ष का अधिकारी नहीं बन सका।
१२. संसारप्रतिग्रह-इस शब्द से ऐसा प्रतीत होता है, मनुष्यभव में पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त किया, या पहली बार चारित्र धारण किया, उसके अनन्तर प्रतिपाति होकर उत्कृष्ट कितने काल तक भव भ्रमण करना पड़ता है ? जघन्य आराधना से और अधिक विराधना से भवभ्रमण होता है। इसके लिए जमालिकुमार का उदाहरण ही पर्याप्त है।
१३. नन्दावर्त्त-जिस मनुष्य की काल लब्धि तो अधिक है, किन्तु संयम उत्तरोत्तर विशुद्ध विशुद्धतर होता जा रहा है ऐसी आत्माएं मनुष्य से वैमानिकदेव, और वैमानिक से मनुष्य इस प्रकार सातभव देव के और आठ भव मनुष्य के, नरक, तिर्यंच दोनों गतियों का बन्धाभाव करने से उच्च मानव भव और उच्च देवभव में भौतिक तथा आध्यात्मिक आनन्द अनुभव करती हैं, इस कारण यह नन्दावर्त कहलाता है-जैसे सुबाहुकुमार का इतिहास हमारे सामने विद्यमान है। संभव है इस अधिकार में उक्त विषय निहित हों। ___१४. मनुष्यावर्त्त-इस शब्द के पीछे भी अनेक अनिर्वचनीय रहस्य गर्भित हैं। मनुष्य भव में निरन्तर आवर्त करते रहना सम्यक्त्व या चारित्र से प्रतिपाति होकर निरन्तर मनुष्य भव में कितनी बार जीव ने जन्म-मरण किए या जीव मनुष्य भव कितनी बार निरन्तर प्राप्त कर सकता है ? निरन्तर आठ भव मनुष्य के हो सकते हैं, अधिक नहीं, तत्पश्चात् निश्चय ही देवगति को प्राप्त करता है। दूसरे भव से लेकर सातवें भव तक मुक्त होने का भी सुअवसर है किन्तु आठवें भव में नहीं, मनुष्य के पहले भव में सिद्धगति प्राप्त करने की भजना है। छठी पांचवीं नरक से आया हुआ, किल्विषी और परमाधामी देवगति से आया हुआ, विकलेन्द्रिय
और असंज्ञीतिर्यंच तथा असंज्ञी मनुष्य से आया हुआ जीव मनुष्यगति में सिद्धत्व प्राप्त नहीं कर सकता। संभव है इस अधिकार में उक्त प्रकार के विषय का वर्णन किया हो।
सिद्ध श्रेणिका परिकर्म के अनन्तर मनुष्य श्रेणिका परिकर्म का वर्णन करने का मुख्य ध्येय यही हो सकता है कि मनुष्यगति से ही सिद्धिगति प्राप्त हो सकती है, अन्य गति से नहीं। सिद्धों तथा मनुष्यों के जितने भी कथनीय विषय हैं, उन सबका विभाजन उक्त चौदह अधिकारों में ही हो सकता है। पन्द्रहवें अधिकार के लिए कोई विषय शेष नहीं रह जाता।
दृष्टिवाद नामक 12वें अंग के 46 मातृकापद हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों पदों को मातृकापद कहते हैं। यहां पद शब्द भेद अर्थ में अभीष्ट है। दृष्टिवाद के पहले भाग में परिकर्म का अधिकार है। परिकर्म के 7 भेद हैं, उनमें सिद्धश्रेणिका-परिकर्म और
1. दिट्ठिवायस्स णं छयालीसं माउया पया पण्णत्ता। समवायांग सू. नं. 85 1, 46वीं समवाय माउयापयाणि माउयापया दोनों शब्द शुद्ध हैं। पुल्लिंग में भी पद शब्द का प्रयोग कर सकते हैं।
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