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१२. संसारप्रतिग्रह-इसका अर्थ होता है सन्मार्ग से भटककर उन्मार्ग में गमन करना। जिन आत्माओं ने सम्यक्त्व या चारित्र से प्रतिपाति होकर अशुभगतियों में संख्यातकाल, असंख्यात काल या अनन्तकाल पर्यन्त भवभ्रमण करके सिद्धत्व प्राप्त किया है, संभव है इस अधिकार में अतीतकाल की अपेक्षा उनके भव भ्रमण का इतिहास निहित हो।
१३. नन्दावर्त्त-इसका भाव है आनन्दमय जीवन का आवर्त्त, जो सिद्ध अवस्था से पहले रत्नत्रय की आराधना करके आराधक बने, नरकगति तिर्यंचगति, नीचगोत्र और अशुभनामकर्म का बन्ध छेदन कर उत्तममनुष्य भव और उच्चदेवभव में अनुपम सुख का उपभोग कर पुनः चारित्र ग्रहण कर सिद्ध गति को प्राप्त हुए। संभव है इस अधिकार में पूर्वोक्त वर्णन किया गया हो। .
१४. सिद्धावर्त्त-सिद्ध रूप में आवर्तन करना, जिन्होंने कर्मक्षय सिद्ध होने से पूर्व अथवा नैश्चयिक सिद्ध होने से पूर्व मनुष्य के जितने आध्यात्मिक लब्धि संपन्न भव व्यतीत किए हैं, उन्हें व्यावहारिक सिद्ध कहते हैं। जो एक बार व्यावहारिक सिद्ध होकर नैश्चयिक सिद्ध हुए हैं। संभव है इस अधिकार में उन्हीं का वर्णन हो।
___मनुष्य-श्रेणिका-परिकर्म १. मातृकापद-मनुष्य भव सब गतियों में और सब भवों में श्रेष्ठ गति एवं श्रेष्ठ भव है। अतः मनुष्य अपना विलक्षण महत्त्व रखता है। केवल जैन ही नहीं, विश्व में जितने आत्मवादी तथा आस्तिक हैं, वे सभी मानवभव को प्रधान मानते हैं। वैसे तो शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध जीव सभी गति, जाति, कुल और भवों में करता ही रहता है और कृतकर्मों का फल भी भोगता रहता है। किन्तु फिर भी जितना उत्थान, उन्नति और विकास मनुष्य भव में हो सकता है उतना अन्य किसी भव में नहीं। 9वें देवलोक से लेकर 26वें देवलोक तक देवत्व के रूप में उत्पन्न होने की शक्ति मनुष्य में ही है और उन देवलोकों से देवता च्यव कर मनुष्य ही बनते हैं। इसके अतिरिक्त सिद्धत्व प्राप्त करने की शक्ति भी मनुष्य में ही है, इस दृष्टि से सिद्धश्रेणिका परिकर्म के बाद मनुष्यश्रेणिका परिकर्म वर्णित किया है।
मातृकापद त्रिपदी का द्योतक है। उत्पाद, व्यय और ध्रुव इनको त्रिपदी कहते हैं। मनुष्यायु उदय होने के पहले समय से लेकर अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर की अपेक्षा से उत्पाद और पूर्वपूर्व की अपेक्षा से व्यय समय-समय में हो रहा है। पहले समय से लेकर अन्तिम समय तक मनुष्यभव ध्रुव है। उत्पाद के बाद व्यय और व्यय के बाद उत्पाद यह क्रम बेरोकटोक चलता ही रहता है। द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः इस प्रकार चारों की अपेक्षा पर्याय बदलती रहती है। कल्पना करो अभी-अभी सौ वर्ष की आयु वाला एक शिशु पैदा हुआ है। तुरन्त फोटोग्राफर ने उसकी फोटो ली, प्रत्येक दिन प्रत्येक महीने और प्रत्येक वर्ष उसकी फोटो लेते रहे, सौ वर्ष समाप्त होने पर सभी फोटो यदि सामने रखे जाएं तो सभी फोटो में विभिन्नता दृष्टिगोचर होती जाएगी। जैसे-जैसे व्यक्ति में पर्याय बदलती है वैसे-वैसे फोटो
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