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अधिकार को एक गुण कहा है। जिन वर्गों के भेद ऊपर लिखे जा चुके हैं, वे सब वर्ग अनन्त-अनन्त हैं, संख्यात-असंख्यात नहीं।
८. द्विगुण-गणधर, आचार्य, उपाध्याय, शास्ता, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, मण्डलीकनरेश इत्यादि पदवी के उपभोक्ता होकर यथाख्यात चारित्र के द्वारा कर्मों से मुक्त होने वाले सिद्ध, स्त्रीलिंगसिद्ध, सम्यक्त्व से प्रतिपाति होकर संख्यात भव तथा असंख्यात भव तक संसार में भ्रमण करके पंचमगति प्राप्तसिद्ध, पांच अनुत्तर विमानों से च्यवकर हुए सिद्ध इत्यादि अनेक विकल्प किए जा सकते हैं। संभव है इस अधिकार में ऐसा ही वर्णन हो।
९. त्रिगुण-बुद्धबोधितसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध, स्वलिंगसिद्ध, मध्यमावगाहना वाले सिद्ध, सम्यक्त्व से प्रतिपाति हो अनन्त संसार परिभ्रमण करके पंचमगति प्राप्तसिद्ध, महाविदेह से हुए सिद्ध और तीर्थसिद्ध। संभव है इस अधिकार में पूर्वोक्त प्रकार से वर्णन हो, इसके भी अनगिनत भेद हैं। यहां तो केवल विषय स्वरूप का दिग्दर्शन ही कराया गया है।
१०. केतुभूत-यह पद दूसरी बार आया है। पहले की अपेक्षा यह पद अपना अलग ही महत्त्व रखता हैं। यहां से विषय का दूसरा मोड़ प्रारम्भ हो जाता है। जब जीव पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तब उसकी विचारधारा एकदम स्वच्छ एवं आनन्दवर्धक हो जाती है। शुभ इतिहास के सुनहले पन्ने भी यहीं से प्रारम्भ होते हैं। विकास की पहली भूमिका भी, सम्यक्त्व ही है। विवेक की अखंड ज्योति भी सम्यक्त्व से जगती है। आत्मानुभूति की अजस्त्र पीयूषधारा भी सम्यक्त्व से ही प्रवाहित होती है। सम्यक्त्व से ही जीव वास्तविक अर्थ में
आस्तिक बनता है। एक बार जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है, समयान्तर में फिर भले ही वह मिथ्यादृष्टि बन जाए, किन्तु वह किसी भी अशुभकर्म की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधता, जब कि एकान्त मिथ्यादृष्टि बांधता है। जो आत्मा कभी भी पहले सम्यग्दृष्टि नहीं बना और न मार्गानुसारी ही, उसे एकान्त मिथ्यादृष्टि कहते हैं। संसारावस्था में जब सिद्धं आत्माओं से सम्यक्त्व प्राप्त किया, तभी से उनका विकास प्रारम्भ हुआ। जितने भी सिद्ध हुए हैं, उन्होंने सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त किया है और विकास उन्मुख हुए, वहीं से जीवन का नया मोड़ प्रारम्भ हुआ। वस्तुतः सम्यक्त्व लाभ होने पर ही गुणों का विकास और अवगुणों का ह्रास, एवं जीवन का पावन इतिहास प्रारम्भ होता है।
११. प्रतिग्रह-इसका अर्थ होता है स्वीकार करना-सम्यक्त्वलाभ होने पर 12 व्रत गृहस्थ के तथा पांच महाव्रत साधु के इनमें से किसी एक मार्ग को अपनाया व्रत स्वीकार करने पर यथाशक्य नियमों को आराधना से, दुःशक्य या अशक्य नियमों को विराधना से संयम पाला। बन्ध और निर्जरा दोनों ही चालू रहे, व्रतधारण करने पर उत्थान, पतन और स्खलना होती रही, उसके परिणामस्वरूप पुनः भवभ्रमण करके सिद्धगति को प्राप्त किया। संभव है, इस अधिकार में इस प्रकार का वर्णन हो।
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