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________________ १०. विद्यानुप्रवादपूर्व-इसमें अनेक प्रकार की अतिर्शायनी विद्याओं का वर्णन है। साधन की अनुकूलता से ही उनकी सिद्धि कही गई है। इसके 1 करोड़ 10 लाख पद हैं। ११. अबन्ध्यपूर्व-इसमें ज्ञान, संयम और तप इत्यादि सभी शुभ क्रियाएं शुभ फलवाली हैं और प्रमाद, विकथा आदि कर्म अशुभ फलदायी हैं। इसीलिए इसको अबन्ध्य कहा है। इसके 26 करोड़ पद परिमाण हैं। १२. प्राणायुपूर्व-इसमें आयु और प्राणों का निरूपण किया है। उनके भेद प्रभेदों का सविस्तर वर्णन है। उपचार से इस पूर्व को भी प्राणायु कहते हैं। इसमें अधिकतर आयु जानने का अमोघ उपाय है। मनुष्य, तिर्यंच, और देव आदि की आयु को जानने के नियम बताए हुए हैं। इसमें एक करोड़ 56 लाख पद परिमाणं हैं। १३. क्रियाविशालपूर्व-जीव क्रिया और अजीव क्रिया तथा आश्रव का वर्णन करने से इसकी क्रियाविशाल संज्ञा दी है। इसके पद परिमाण 9 करोड़ हैं। १४. लोकबिन्दसार-सर्वाक्षर सन्निपात आदि लब्धियों और विशिष्ट शक्तियों के कारण विश्व में या श्रुतलोक में यह अक्षर के बिन्दु की तरह सर्वोत्तम सार है। अतः लोग इसे बिन्दुसार कहते हैं। इसके पद परिमाण साढ़े बारह करोड़ हैं। , उपरोक्त यह विवरण वृत्तिकार ने चूर्णि से लिया है। जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए एतद्-विषयक समग्रपाठ चूर्णि का यहां उद्धृत किया जा रहा है___“से किं तं पुव्वगयं? उच्यते जम्हा तित्थगरो तित्थप्पवत्तणकाले गणहरा सव्वसुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगतसुत्तत्थं भासइ, तम्हा पुव्वं ति भणिता, गणहरा सुत्तरयणं करेन्ता आयाराइक्कमेण रयणं करेन्ति, ठवेन्ति या अण्णायरियमतेण पुण पुव्वगत सुत्तत्थो पुव्वं अरहता भणिया गणहरे वि-पुव्वगतसुत्तं चेव पुव्वं रइयं, पच्छा आयाराइ एवमुत्तो, चोदक आह-णणु पुव्वावरविरुद्धं कम्हा? जम्हा आयार णिज्जुत्तीए भणन्ति, सव्वेसिं-आयारो पाठमो. गाहा। आचार्य आह-सत्यमुक्तं, किन्तु सा ठवणा, इमं पुण अक्खर रयणं पडुच्च . भणितं, पुव्वं पुव्वा कया इत्यर्थः। ते य उप्पाय पुव्वादय चोद्दस पुव्वा पण्णत्ता। . १-पढम उप्पाय पुव्वं ति-तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जयाणं य उप्पायभावमंगीकाउं पण्णवणा कया, तस्स पद परिमाणं एका पदकोडी। २-वितीयं अग्गेणीयं, तत्थ वि सव्व दव्वाण पज्जवाणं च सव्वजीवविसेसाण य अग्गं परिमाणं वणिज्जइ त्ति अग्गेणीतं तस्स पद परिमाणं छणउतिं पदसयसहस्सा। ३-तइयं वीरियपवायं, तत्थवि अजीवाण जीवाण य सकम्मेतराण वीरियं प्रवदंतीति, वीरियप्पवायं, तस्सवि सत्तरि पदसयसहस्सा। ४-चउत्थं अत्थिनत्थिप्पवायं, जो लोगे जधा अस्थि णत्थि वा, अहवा सियवायाभिप्पादतो तदेवास्ति-नास्ति इत्येवं प्रवदति इति अस्थिणत्थिप्पवादं भणितं तंपि पद परिमाणतो *489*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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