SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ११. अवन्ध्यपूर्व के बारह वस्तु प्रतिपादन किए गए हैं। १२. प्राणायुपूर्व के तेरह वस्तु हैं। १३. क्रियाविशालपूर्व के तीस वस्तु कहे गए हैं। १४. लोकबिन्दुसार पूर्व के पच्चीस वस्तु हैं। संक्षेप में वस्तु और चूलिकाओं का वर्णन प्रथम में 10, द्वितीय में 14, तृतीय में 8, चतुर्थ में 18, पांचवें में 12, छठे में 2, सातवें में 16, आठवें में 30, नवें में 20, दसवें में 15, ग्यारहवें में 12, बारहवें में 13, तेरहवें में 30 और चौदहवें पूर्व में 25 वस्तु हैं। आदि के चार पूर्वो में क्रम से-प्रथम में 4, दूसरे में 12, तीसरे में 8 और चौथे पूर्व में 10 चूलिकाएं हैं, शेष पूर्वो की चूलिका नहीं है। इस प्रकार यह पूर्वगत दृष्टिवादांग श्रुत का वर्णन हुआ। टीका-इस सूत्र में पूर्वो के विषय में वर्णन किया गया है। जब तीर्थंकर के समीप विशिष्ट बुद्धिशाली, लब्धवर्ण, उच्चकोटि के विद्वान, विशिष्ट संस्कारी, चरमशरीरी, प्रभावक, तेजस्वी, स्व-पर कल्याण करने में समर्थ उदारचेता, आदि गुणसम्पन्न गणधर दीक्षित होते हैं, तब मातृका' पद के सम्बोध से उनको जो ज्ञान उत्पन्न होता है, इसी कारण उनको पूर्व कहते हैं, जो चूर्णिकार ने लिखा है-“सव्वेसिं आयारो पढमो" अर्थात् सबसे पहले आचारांग सूत्र निर्माण हुआ है, क्योंकि सब अंगसूत्रों में आचारांग की गणना प्रथम है। वैदिक परंपरा में भी कहा है कि आचारः प्रथमो धर्मः। ऊपर लिख आए हैं कि पूर्वो का ज्ञान पहले होता है, इसलिए उन्हें पूर्व कहते हैं। इससे जिज्ञासुओं के मन में पूर्व-अपर विरोध प्रतीत होता है। परन्तु इस विरोध का निराकरण इस प्रकार किया जाता है, तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ की स्थापना करते समय जिन्हें पहले पूर्वो का ज्ञान हो गया, वे गणधर बनते हैं। वे अंगों का अध्ययन क्रमश: नहीं करते, उन्हें तो पहले ही पूर्वो का ज्ञान होता है। वे गणधर शिष्यों को पढ़ाने के लिए 11 अंग सूत्रों की रचना करते हैं, तदनन्तर दृष्टिवाद का अध्ययन कराते हैं। इस विषय पर वृत्तिकार के शब्द हैं से किं तमित्यादि अथ किं तत्पूर्वगतं ? इह तीर्थकरस्तीर्थंप्रवर्तनकाले गणधरान् सकलश्रुतावगाहनसमर्थानधिकृत्य पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थं भाषते, ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधतः-आचारादिक्रमेण विदधति स्थापयति वा। अन्ये तु व्याचक्षते-पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन् भाषते, गणधरा अपि पूर्वं पूर्वगतसूत्रं 1. "उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवेइ वा," इनको मातृकापद या त्रिपदी भी कहते हैं। - *487* --
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy