________________
है। अथवा स्पृष्ट का अर्थ होता है-छुए हुए। सिद्ध एक दूसरे से स्पृष्ट हैं। निगोदिय शरीर में अनन्त जीव परस्पर स्पृष्ट हैं। धर्म, अधर्म, लोकाकाश इनके प्रदेश अनादिकाल से परस्पर स्पृष्ट हैं, इत्यादि वर्णन होने की भी संभावना है।
___४. अवगाढश्रेणिका परिकर्म मूलम्-से किं तं ओगाढसेणिआपरिकम्मे ? ओगाढसेणिआपरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहा
१. पाढोआगा (मा) सपयाइं, २. केउभूअं, ३. रासिबद्धं, ४. एगगुणं, ५. दगणं, ६. तिगुणं,.७. केउभूअं८. पडिग्गहो, ९. संसारपडिग्गहो, १०. नंदावत्तं, ११. ओगाढावत्तं, से त्तं ओगाढसेणियापरिकम्मे। ___ छाया-अथ किं तदवगाढ़श्रेणिकापरिकर्म ? अवगाढश्रेणिकापरिकर्म एकादशविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा
१. पृथगाकाशपदानि, २. केतुभूतम्, ३. राशिबद्धम्, ४. एकगुणम्, ५. द्विगुणम्, ६. त्रिगुणम्, ७. केतुभूतम्, ८. प्रतिग्रहः, ९. संसारप्रतिग्रहः, १०. नन्दावर्त्तम्, ११. . अवगाढावर्त्तम् , तदेतदवगाढश्रेणिकापरिकर्म।
भावार्थ-वह अवगाढश्रेणिकापरिकर्म कितने प्रकार का है ? अवगाढश्रेणिका परिकर्म ११ प्रकार का है, जैसे
१. पृथगाकाशपद, २. केतुभूत, ३. राशिबद्ध, ४. एकगुण, ५. द्विगुण, ६. त्रिगुण, ७. केतुभूत, ८. प्रतिग्रह, ९. संसारप्रतिग्रह, १०. नन्दावर्त, ११. अवगाढावर्त्त, यह अवगाढश्रेणिकापरिकर्म श्रुत है।
टीका-इस सूत्र मे अवगाढ़श्रेणिका परिकर्म का वर्णन है। सब द्रव्यों को जगह देना, यह आकाश द्रव्य का उपकार है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय ये पांच द्रव्य आधेय हैं। इनको अपने में स्थान देना यह आकाश का कार्य है। जो द्रव्य जिस आकाश प्रदेश या देश में अवगाढ़ हैं, उनका सविस्तर वर्णन अवगाढ़श्रेणिका में होगा, ऐसा प्रतीत होता है।
५. उपसम्पादनश्रेणिका परिकर्म मूलम्-से किं तं उवसंपज्जणसेणिआपरिकम्मे ? उवसंपज्जणसेणिआपरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहा
१. पाढोआगा (मा) सपयाई, २. केउभूयं, ३. रासिबद्धं, ४. एगगुणं, ५. दुगुणं, ६. तिगुणं, ७. केउभूअं, ८. पडिग्गहो, ९. संसारपडिग्गहो,
- * 479 *