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की परंपरा, सुकुलपच्चायाईओ-विशिष्टकुल में जन्म लेना, पुणबोहिलाभा-पुनः रत्नत्रय का लाभ होना। अन्तकिरियाओ-कर्मों को सर्वथा क्षय करके निर्वाण पद प्राप्त करना। इनका भाव यह है कि धर्मकथा सुनने से ही उत्तरोत्तर क्रमशः गुणों की प्राप्ति हो सकती है, उसका अन्तिम गुण निर्वाण प्राप्ति है। शेष शब्दों का अर्थ भावार्थ से जानना चाहिए। यहां तो केवल विशेषता का उल्लेख किया गया है ।। सूत्र 56 ।।
१२. श्री दृष्टिवाद सूत्र मूलम्-से किं तं दिठिवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्व-भाव परूवणा आघविज्जइ। से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा- ..
१. परिकम्मे, २. सुत्ताई, ३. पुव्वगए, ४. अणुओगे, ५. चूलिआ।
छाया-अथ कोऽयं दृष्टिवादः ? दृष्टिवादे सर्व-भाव-प्ररूपणा आख्यायते, सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा
१. परिकर्म, २. सूत्राणि, ३. पूवर्गतम्, ४. अनुयोगः, ५. चूलिका। भावार्थ-शिष्य ने पूछा-भगवन् ! वह दृष्टिवाद क्या है ?
आचार्य उत्तर में बोले-भद्र ! दृष्टिवाद-सब नयदृष्टियों को कथन करने वाले श्रुत में समस्त भावों की प्ररूपणा की है। वह संक्षेप में पांच प्रकार का है, जैसे-१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत, ४. अनुयोग और ५. चूलिका। '
टीका-इस सूत्र में दृष्टिवाद का अति संक्षिप्त परिचय दिया गया है। दृष्टिवाद अंगश्रुत जैनागमों में सबसे महान है। जो कि वर्तमान काल में अनुपलब्ध है। इसे व्यवच्छेद हुए अनुमानतः पन्द्रह सौ वर्ष हो चुके हैं। 'दिट्ठिवाय' शब्द प्राकृत का है, इसकी संस्कृत छाया 'दृष्टिवाद' और 'दृष्टिपात' बनती है। दोनों ही अर्थ यहां संगत हो जाते हैं। दृष्टि शब्द अनेक-अर्थक है। नेत्र शक्ति, ज्ञान, समझ, अभिमत, पक्ष, नय-विचारसरणि, दर्शन इत्यादि अर्थों में दृष्टि शब्द प्रयुक्त होता है। वाद का अर्थ होता है-कथन करना।
विश्व में जितने भी दर्शन हैं, नयों की जितनी पद्धतियां हैं, जितना भी अभिलाप्य श्रुतज्ञान है, उन सबका समावेश दृष्टिवाद में हो जाता है। सारांश यह हुआ कि जिस शास्त्र में मुख्यतया दर्शन का विषय वर्णित हो, उस शास्त्र का नाम दृष्टिवाद है। दृष्टिवाद का व्यवच्छेद सभी तीर्थंकरों के शासन में होता रहा है, किन्तु मध्य के आठ तीर्थंकरों के शासन में कालिक श्रुत का भी व्यवच्छेद हो गया था। कालिक श्रुत के व्यवच्छेद होने से भावतीर्थ के लुप्त होने का भी प्रसंग आया। भगवान महावीर के द्वारा प्रवर्तित दृष्टिवाद पंचम आरक में सहस्र वर्ष पर्यन्त रहा, तत्पश्चात् वह सर्वथा लुप्त हो गया। इसके विषय में वृत्तिकार लिखते हैं- "सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि लेशतो यथागतसम्प्रदायं किञ्चिद्
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