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भोगने वाले पुरुषों के नगर, उद्यान, वनखण्ड-व्यन्तरायतन, समवसरण, राजा, मातापिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इस लोक-परलोक सम्बन्धित ऋद्धिविशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या-दीक्षा, दीक्षापर्याय, श्रुत का ग्रहण, उपधान तप, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक गमन, सुखों की परम्परा, पुनः बोधिलाभ, अन्तक्रिया इत्यादि विषयों का वर्णन है।
विपाकश्रुत में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तिएं, संख्यात संग्रहणियें और संख्यात प्रतिपत्तियें हैं। ___ अंगों की अपेक्षा से वह एकादशवां अंग है, इसके दो श्रुतस्कन्ध, बीस अध्ययन, बीस उद्देशनकाल और बीस समुद्देशनकाल हैं। पदाग्र परिमाण में संख्यात सहस्र पद हैं, संख्यात अक्षर, अनन्त अर्थगम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर,शाश्वत-कृतनिबद्ध-निकाचित, हेतु आदि से निर्णीत भाव कहे गए हैं, प्ररूपण किए गए हैं, दिखलाए गए हैं, निदर्शन और उपदर्शन किए गए हैं।
विपाकश्रुत का अध्ययन करने वाला एवंभूत आत्मा, ज्ञाता तथा विज्ञाता बन जाता है। इस तरह से चरण-करण की प्ररूपणा कही गयी है। इस प्रकार यह ११वें अंग विपाकश्रुत का विषय वर्णन किया गया है। सूत्र ५६ ॥
टीका-उक्त पाठ में सुखविपाक का वर्णन किया गया है। इस अंग के भी दस अध्ययन है। दसों अध्ययनों में उन महापुण्यशाली आत्माओं का वर्णन है, जिन्होंने सुपात्र दान दिया है। जिसको धर्मदान भी कहते हैं। सुपात्रदान का कितना महत्त्वपूर्ण फल मिला है या मिलता है, यह इसके अध्ययन करने से प्रतीत होता है। जिन्होंने पूर्वभव में सुपात्रदान दिया उन भाग्यवान् सत्पुरुषों ने सुपात्रदान के कारण संसार परित्त किया, मनुष्यभव की आयु बांधी, पुनः इह भव में महाऋद्धिप्राप्त करके लोकप्रिय एवं अत्यन्त सुखी बने, उस ऋद्धि का त्याग करके सभी अध्ययनों के नायकों ने संयम अंगीकार किया और देवलोक में देवत्व को प्राप्त किया। आगे मनुष्य और देवता के शुभभव करते हुए महाविदेह क्षेत्र में निर्वाण पद प्राप्त करेंगे। यह सब कल्याण एवं सुख-परम्परा सुपात्र दान का ही माहात्म्य है। इन सब में सुबाहुकुमार की कथा बड़े विस्तार के साथ दी गई है। शेष अध्ययनों में संक्षिप्त वर्णन है। पुण्यानुबन्धिपुण्य का फल कितना मधुर एवं सुखद-सरस है, इसका परिज्ञान इन कथाओं से हो जाता है। धम्मायरियाधर्माचार्य, धम्मकहाओ-धर्मकथाएं, इहलोइयइड्ढि-परलोइयइड्ढिविसेसा-इहलौकिक तथा पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोगपरिच्चागा-वैषयिक भोगों का परित्यांग, पव्वज्जाओदीक्षाग्रहण करना, मोक्ष का पथिक बनना, परियागा-संयम में व्यतीत की हुई आयु, सुअपरिग्गहा-श्रुतज्ञान की आराधना कहां तक की है, तपोवहाणाइं-उपधान तप का वर्णन, संलेहणाओ-संलेखना करना, भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई-भक्त प्रत्याख्यान तथा पादपोपगमन संथारा करना, देवलोगगमणाइं-उनका देवलोक में जाना। सुहपरंपराओ-सुख
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