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________________ गंडाकुण्ड आदि कुण्ड, पौण्डरीक आदि हृद-तालाब, गंगा आदि नदियां कथन की जाती हैं। स्थानांग में एक से लेकर दस तक वृद्धि करते हुए भावों की प्ररूपणा की गयी है। स्थानांगसूत्र में परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। वह अंगार्थ से तृतीय अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध और दस अध्ययन हैं तथा 21 उद्देशनकाल और 21 ही समुद्देशन काल हैं। पदों की संख्या पदाग्र से 72 हजार है। संख्यात अक्षर व अनन्त गम-पाठ हैं। अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिनकथित भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापन, प्ररूपण, उपदर्शन, निदर्शन और दर्शित किए गए हैं। इस स्थानांग का अध्ययन करने वाला तदात्मरूप, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार उक्त अंग में चरण-करणानुयोग की प्ररूपणा की गयी है। यह स्थानांगसूत्र का वर्णन है।। सूत्र 48 ।। टीका-इस सूत्र में स्थानांगसूत्र का परिचय संक्षेप रूप में दिया गया है। 'ठाणे णं' यह मूलसूत्र है जो कि सप्तमी व तृतीया के रूप हो सकते हैं। इसका यह भाव है कि स्थानांग में जीवादि पदार्थों का वर्णन किया हुआ है अथवा एक से लेकर दश स्थानों के द्वारा जीवादि पदार्थ व्यवस्थापन किए गए हैं। इस विषय में वृत्तिकार लिखते हैं “अथ किं तत्स्थानम् ? तिष्ठन्ति प्रतिपाद्यतया जीवादयः पदार्था अस्मिन्निति स्थानं तथा चाह सूरिः 'ठाणेण' मित्यादि स्थानेन स्थाने वा 'ण' मिति वाक्यालंकारे जीवाः स्थाप्यन्ते-यथाऽवस्थितस्वरूप-प्ररूपणया व्यवस्थाप्यन्ते।" यह श्रुतांग दस अध्ययनों में विभाजित है। इसमें सूत्रों की संख्या हजार से अधिक है। इसमें 21 उद्देशक हैं। इसकी रचना पूर्वोक्त दो श्रुतांगों से विलक्षण तथा उनसे भिन्न प्रकार की है। यहां प्रत्येक अध्ययन में जैन दर्शनानुसार वस्तु संख्या गिनाई गई हैं, जैसे_1. पहले अध्ययन में 'एगे आया' आत्मा एक है, इत्यादि एक-एक पदार्थ का वर्णन किया है। 2. दूसरे अध्ययन में विश्व के दो-दो पदार्थों का वर्णन है, जैसे कि जीव और अजीव, पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म, आत्मा और परमात्मा इत्यादि। ... 3. तीसरे अध्ययन में सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र का निरूपण तथा धर्म, अर्थ, काम ये तीन प्रकार की कथाएं बताई गई हैं। तीन प्रकार के पुरुष होते हैं-उत्तम, मध्यम, जघन्य। धर्म तीन प्रकार का होता है-श्रुतधर्म, चारित्र धर्म और अस्तिकायधर्म; इस प्रकार अनेकों ही त्रिकें कही गई हैं। 4. चौथे अध्ययन में चातुर्याम धर्म आदि सात सौ चतुर्भंगियों का वर्णन है। *451*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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