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हैं। अतः इन सबकी विनय करने से जीव परमपद को प्राप्त कर सकता है।
क्रियावादी 180 प्रकार के हैं। अक्रियावादी 84 तरह के है। अज्ञानवादी 67 प्रकार के हैं। और विनयवादी 32 प्रकार के होते हैं। इनका सविस्तार वर्णन टीकाकारों ने निम्न प्रकार से किया है जैसे कि
1. क्रियावादियों के 180 भेद हैं। वे इस रीति से समझने चाहिएं-जीव-अजीव आदि पदार्थों को क्रमशः स्थापन करके उनके नीचे-स्वत: और परत: ये दो भेद रखने चाहिएं और उनके नीचे नित्य एवं अनित्य, इस प्रकार दो भेद स्थापन करने चाहिएं। उसके नीचे क्रमशः काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा ये पांच पद स्थापन करने चाहिएं। तत्पश्चात् इनका संचार इस प्रकार करना चाहिए, जैसे कि 1. जीव अपने आप विद्यमान है। 2. जीव दूसरे से उत्पन्न होता है। 3. जीव नित्य है। 4. जीव अनित्य है। इन चारों भेदों को काल आदि के साथ जोड़ने से 20 भेद हो जाते हैं, जैसे कि
1. जीव स्वत: काल से नित्य है। 2. जीव स्वतः काल से अनित्य है। 3. जीव परत: काल से नित्य है। 4. जीव परतः काल से अनित्य है। 5. जीव स्वयं चेतन स्वभाव से नित्य है। 6. जीव स्वतः होकर भी स्वभाव से अनित्य है। 7. जीव परतः होकर भी स्वभाव से नित्य है। 8. जीव परतः होकर भी स्वभाव से अनित्य है।
इसी तरह नियति के विषय में समझना चाहिए। नियति का यह अर्थ है कि जो होनहार है, वह होकर ही रहता है। वह किसी भी शक्ति से टलता नहीं, कहा भी है-'यद् भाव्यं तद् भवति, यह नियति वादियों की मान्यता है।
9. जीव होनहार से स्वतः हजारों की संख्या में उत्पन्न होता है और नित्य रहता है। 10. जीव होनहार से परतः उत्पन्न होता है, वह नित्य रहता है। 11. होने वाला हुआ तो जीव स्वतः उत्पन्न होकर भी अनित्य रहता है। 12. होनहार के कारण ही जीव परतः उत्पन्न होकर अनित्य रहता है। .. 13. जीव ईश्वर से अपने ही कारणों से उत्पन्न होकर नित्य रहता है। 14. जीव ईश्वर से परतः ही कारणों से उत्पन्न होकर नित्य रहता है। 15. जीव ईश्वर से अपने ही कारणों से उत्पन्न होकर अनित्य रहता है। 16. जीव ईश्वर से परतः ही कारणों से उत्पन्न होकर अनित्य रहता है।
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