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17. जीव स्वयं अपने रूप से उत्पन्न होता है और नित्य है। 18. जीवं आत्म रूप से स्वयं पैदा होकर भी अनित्य है। 19. जीव परत: उत्पन्न होकर भी नित्य एवं शाश्वत है। 20. जीव परतः उत्पन्न होकर ही अनित्य एवं अशाश्वत है।
इस प्रकार जीव के विषय मे 20 भंग बनते हैं, इसी तरह अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, और मोक्ष, इन आठ पदार्थों के भी प्रत्येक में 20-20 भंग होते हैं। इस तरह नव को 20 से गुणा करने पर क्रियावादियों की कुल संख्या 180 होती है।
२. अक्रियावादी-क्रियावादी से विपरीत एकान्त जीव आदि का निषेध करने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं। इनके 84 भेद होते हैं, पुण्य-पाप को छोड़कर जीव-अजीव आदि सात पदार्थों को लिखकर उनके नीचे स्व-पर ये दो भेद रखना, फिर काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा इन 6 को नीचे रखने से 84 प्रकार हो जाते हैं, जैसे कि
1. जीव स्वतः काल से नहीं है। 2. जीव परतः काल से नहीं है। 3. जीव यदृच्छा से स्वत: नहीं है।
4. जीव परत: यदृच्छा से नहीं है। - इसी तरह नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा के साथ जोड़ने से प्रत्येक के दो-दो भेद होकर कुल 12 भेद होते हैं। इसी प्रकार जीव आदि सात पदार्थों के प्रत्येक के 12 भेद होने से कुल 84 भेद होते हैं। नास्तिकों के मत से स्वत: या परत: जीवादि पदार्थ नहीं हैं। शून्यवादियों का भी इसी में अन्तर्भाव हो जाता है।
____३. अज्ञानवादी-अज्ञान से ही कार्य सिद्धि चाहने वाले अज्ञानवादियों के 67 भेद होते हैं। जीव आदि नव पदार्थों के विषय में सत्, असत् आदि सप्त भंगों में संशय करने पर 67 प्रकार होते हैं, जैसे कि
1. जीव सत् है, यह कौन जानता है ?
2. जीव असत् है, यह कौन जानता है ? और इन्हें जानने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? क्या लाभ है ? ... 3. सत्-असत् उभयात्मक है, यह कौन जानता है ? इन्हें जानने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? क्या लाभ है ?
4. जीव अवक्तव्य है, यह कौन जानता है ? और यह जानने से भी क्या प्रयोजन ? 5. जीव सत् अवक्तव्य है, यह कौन जानता है ? यह जानने से क्या प्रयोजन ? 6. जीव असद्-अवक्तव्य है, यह कौन जानता है ? यह जानने से क्या प्रयोजन ?
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