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________________ प्रतिपादन करने वाले शास्त्र का नाम नन्दी क्यों रखा है ? इस प्रकार अनेक प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं । वास्तव में देखा जाए तो ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं, जिसका कोई उत्तर न हो, यह बात अलग है, किसी को उत्तर देने का ज्ञान है और किसी को नहीं। __ 'टुनदि समृद्धौ' धातु से नन्दी शब्द बनता है। समृद्धि सबको आनन्द देने वाली होती है। वह समृद्धि दो प्रकार की होती है, जैसे कि द्रव्य समृद्धि और भाव समृद्धि । इनमें चलसम्पत्ति, अचलसंपत्ति, कनक-रत्न तथा अभीष्ट वस्तु की संप्राप्ति द्रव्यसमृद्धि है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये सब भावसमृद्धि हैं। द्रव्यसमृद्धि निस्पृह व्यक्ति के लिए आनन्दवर्द्धक नहीं होती, किन्तु जिससे अज्ञात का ज्ञान हो जाए या अज्ञान की सर्वथा निवृत्ति हो जाए, वह ज्ञानलाभ सबके लिए अवश्यमेव आनन्द विभोर करने वाला होता है। पूर्वभव को याद दिलाने वाला जाति-स्मरण आदि ज्ञान यदि किसी को हो जाता है, तो वह एक समृद्धि व लब्धि है । वह भाव समृद्धि भी आनन्दप्रद होती है । अतः कारण में कार्य का उपचार करने से शास्त्र का नाम भी नन्दी रखा गया है । नन्दी शब्द पढ़ते हुए या सुनते हुए यह अवश्य प्रतीत होता है कि इसमें जो विषय है, वह नियमेन आनन्ददायी है। जैसे अन्धेरी गली में भटकते हुए व्यक्ति को अकस्मात् प्रदीप मिल जाने से जो प्रसन्नता होती है, इसका पूर्णतया अनुभव वही कर सकता है । ठीक उसी प्रकार ज्ञान भी स्व-पर प्रकाशक है, उसका लाभ होने से किस को हर्ष नहीं होता! जिस शास्त्र में सविस्तर पाँच ज्ञान का वर्णन हो, उसके ज्ञान होने से भी आनन्द की अनुभूति होती है। यदि वह ज्ञान सचमुच अपने में उत्पन्न हो जाए फिर तो कहना ही क्या ? ज्ञान भी आत्मा में है और आनन्द भी । जो शास्त्र अखण्ड महाज्योति को जगाने वाला है, उसे नन्दी कहते हैं । जब आत्मा भावसमृद्धि से समृद्ध हो जाता है, तब वह पूर्णतया सच्चिदानन्द बन जाता है । उस नि:सीम आनन्द का जो असाधारण कारण है, वह नन्दीसूत्र कहलाता है । यह भी कोई नियम नहीं है कि आनन्द ज्ञानवर्द्धक ही होता है, परन्तु ज्ञान नियमेन आनन्दवर्द्धक ही होता है। इसी कारण देववाचकजी ने प्रस्तुत आगम का नाम 'नन्दी' रखा है। नन्दीसूत्र के संकलन में हेतु देववाचकजी जिनवाणी पर अविच्छिन्न एवं दृढ़ श्रद्धा रखते थे । और साथ ही निग्रंथ प्रवचन को अविच्छिन्न रखने के लिए प्रयत्नशील थे, इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर उन्होंने नन्दीसूत्र का संकलन किया । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र, संघसेवा, प्रवचनरक्षा, निर्जरा इत्यादि संकलन में हेतु है । इसी को दूसरे शब्दों में प्रयोजन भी कहते हैं। क्योंकि प्रयोजन के बिना बुद्धिमान तो क्या साधारण लोग भी प्रवृत्ति करते हुए नहीं देखे जाते। दृढनिष्ठा से जिन शासन व प्रवचनभक्ति करना ही शासनदेव की भक्ति है । भवसमुद्र को *36*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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