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अनुगम, और नय ये चार अनुयोग घटित होते हैं। जितने पदों पर अनुयोग घटित हो सकते हैं, वे पद और अनुयोग संख्यात ही हैं। अनुयोग का अर्थ यहां व्याख्यान से अभीप्सित है। सूत्र का सम्बन्ध अर्थ के साथ करना, क्योंकि सूत्र अल्पाक्षर वाला होता है और अर्थ महान्, दोनों के सम्बन्ध को जोड़ने वाला अनुयोगद्वार है। शास्त्र में प्रवेश करने के लिए उपर्युक्त चार द्वार बतलाए हैं।
वेढा - वेष्टक किसी एक विषय को प्रतिपादन करने वाले जितने वाक्य हैं, उन्हें वेष्टक या वेढ कहते हैं अथवा आर्या उपगीति आदि छन्द विशेष को भी वेढ कहते हैं। वे भी संख्यात ही हैं।
श्लोक - अनुष्टुप् आदि श्लोक भी संख्यात ही हैं।
निर्युक्ति- जो युक्ति निश्चय पूर्वक अर्थ को प्रतिपादन करने वाली है, उसे नियुक्ति कहते हैं, ऐसी नियुक्तियां भी संख्यात ही हैं।
प्रतिपत्ति- द्रव्यादि पदार्थों की मान्यता का, अथवा प्रतिमा आदि अभिग्रह विशेष का जिस में उल्लेख हो, उसे प्रतिपत्ति कहते हैं, वे भी संख्यात ही हैं।
उद्देशनकाल - अंगसूत्र आदि का पठन-पाठन करना । किसी भी शास्त्र का शिक्षण गुरु की आज्ञा से होता है, ऐसा शास्त्रीय नियम है। तदनुसार जब कोई शिष्य गुरुदेव से पूछता है कि गुरुदेव ! मैं कौन सा सूत्र पढूं ? तब गुरु आज्ञा देते हैं- आचारांग व सूत्रकृतांग पढ़ो। गुरु की इस सामान्य आज्ञा को उद्देशनकाल कहते हैं।
समुद्देशनकाल- आचारांगसूत्र के पहले श्रुतस्कन्ध का अमुक अध्ययन पढो, इस प्रकार की विशेष आज्ञा को समुद्देशनकाल या समुद्देश कहते हैं।
इस सूत्र के दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं, पिचासी उद्देशन काल हैं और • पिचासी समुद्देशन काल । पूर्व काल में गुरुजन अपने शिष्यों को शास्त्र की वाचना कण्ठाग्र ही दिया करते थे। अतः अध्ययन आदि विभाग के अनुसार नियत दिनों में सूत्रार्थ प्रदान की व्यवस्था उन्होंने निर्माण की, जिस को उद्देशन काल या समुद्देशन काल भी कहते हैं।
पद - इस आचार शास्त्र में अठारह हजार पद हैं। 'पद' शब्द चार अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसे कि अर्थपद, विभक्त्यन्तपद, गाथापद और समासान्तपद । वृत्तिकार इस स्थान पर अर्थपद ग्रहण करते हैं। " पदाग्रेण पदपरिमाणाष्टादश पदसहस्राणि इह यत्रार्थोलब्धिस्तत्पदम्" जहां अर्थोपलब्धि हो, वहां वही पद अभीष्ट है।
संख्येयान्यक्षराणि - इस सूत्र में अक्षर भी संख्यात ही हैं।
गमा- अर्थगमा अर्थात् अर्थ निकालने के अनन्त मार्ग हैं, अभिधान अभिधेय के वश से गम होते हैं, जैसे कि
"चूर्णिकृत् सूरिराह - अभिधानाभिधेयवशतो गमा भवन्ति, ते च अनन्ता, अनेन
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