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7. जहां प्रमादजन्य दोषों की निवृत्ति की जाती है, उसे प्रायश्चित्त तप कहते हैं। 8. पूज्यजनों तथा उच्चचारित्री का बहुमान करना विनय तप है। 9. स्थविर, रोगी, पूज्यजन, तपस्वी, और नवदीक्षित, इनकी यथाशक्य सेवा करना वैयावृत्य तप है। 10. पांच प्रकार का स्वाध्याय करना स्वाध्याय तप है। 11. धर्म एवं शुक्ल ध्यान में तल्लीन रहना ध्यान तप है। 12. बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का यथाशक्य परित्याग करना व्युत्सर्ग तप कहलाता है, इससे ममत्व का ह्रास होता है और समत्व की वृद्धि होती है।
वीर्य शक्ति को कहते हैं, अपने बल एवं शक्ति को उपर्युक्त 36 प्रकार के शुभ अनुष्ठान में प्रयुक्त करना ही वीर्याचार कहलाता है।
गोचर-भिक्षा ग्रहण करने की शास्त्रीय विधि। विनय-ज्ञानी, चारित्रवान का आदर-सम्मान करना। वैनयिक-शिष्यों का स्वरूप और उनके कर्तव्य का वर्णन।
शिक्षा-ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा इस प्रकार शिक्षा के दो भेद होते हैं। उनका पालन करना।
भाषा-सत्य एवं व्यवहार ये दो भाषाएं साधुवृत्ति में बोलने योग्य हैं। अभाषा-असत्य और मिश्र ये दो भाषाएं बोलने योग्य नहीं हैं।
चरण-5 महाव्रत, 10 प्रकार का श्रमणधर्म, 17 विधि संयम, 10 प्रकार का वैयावृत्य (सेवा), नवविध ब्रह्मचर्यगुप्ति, रत्नत्रय, 12 प्रकार का तप, 4 कषायनिग्रह, ये सब चरण कहलाते हैं।
करण-4 प्रकार की पिण्ड-विशुद्धि, 5 समिति, 12 प्रकार की भावनाएं, 12 भिक्षु प्रतिमाएं, 5 इन्द्रियों का निरोध, 25 प्रकार की प्रतिलेखना, 3 गुप्तियां और 4 प्रकार का अभिग्रह ये 70 भेद करण कहलाते हैं।
यात्रा-आवश्यकीय संयम, तप, ध्यान, समाधि, एवं स्वाध्याय में प्रवृत्ति करना। मात्रा-संयम की रक्षा के लिए परिमित आहार ग्रहण करना। वृत्ति-विविध अभिग्रह धारण करके संयम की पुष्टि करना।
इन में से यद्यपि कुछ अनुष्ठानों का एक दूसरे में अन्तर्भाव हो जाता है, तदपि जहां जिस की मुख्यता है, वहां उस का उल्लेख पुनः किया गया है।
आचारे खलु परीता वाचना-आचारांग में वाचनाएं संख्यात ही हैं। अथ से लेकर इति पर्यन्त जितनी बार शिष्य को नया पाठ दिया जाता है और लिखा जाता है, उसे वाचना कहते
संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि-इस सूत्र में ऐसे संख्यात पद हैं, जिन पर उपक्रम, निक्षेप,
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