SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. आदान भण्डमात्र निक्षेप समिति-उठाने, रखने वाली वस्तु को अहिंसा, अपरिग्रह व्रत की रक्षा करते हुए, यतना से उठाना रखना। ५. उच्चारपासवणखेलजल्लमलपरिठावणिया समिति-मल-मूत्र, श्लेष्म, थूक, कफ, नख, केश, रक्त-राध, आंखों एवं कानों की मैल आदि जो घृणास्पद हों, अनावश्यक हों, हिंसाकारी हों, रोगवर्द्धक हों, ऐसी वस्तुओं को यतना से परिष्ठापन करना, जिसमें किसी का पैर स्पृष्ट न हो, जन्तु न फंसे, आते-जाते व्यक्ति की नजर न पड़े। जन्तुओं का संहार करने वाले विषैले खारे तरल पदार्थ को नाली आदि में प्रवाहित न करना, धर्म और लोक व्यवहार की रक्षा के हेतु यतना करना पांचवीं समिति है। इसमें भी यतना से प्रवृत्ति करना ही चारित्र है। मन से हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह सेवन न करना, वचन से हिंसा, झूठ, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का उपयोग न करना, काय से उपर्युक्त पाप सेवन अनुकूल समय मिलने पर भी न करना, इसे गुप्ति भी कहते हैं। वस्तुतः इसी को निवृत्ति धर्म कहते हैं। प्रशस्त में प्रवृत्ति करना और अप्रशस्त से निवृत्ति पाना क्रमशः समिति और गुप्ति कहलाते हैं, कहा भी “पणिहाण जोग जुत्तो, पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहिं । . . एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो ॥" विषय, कषाय से मन को हटाने के लिए और राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने के लिए जिन-जिन उपायों द्वारा शरीर इन्द्रिय और मन को तपाया जाता है, वे सभी उपाय तप हैं। इसके बाह्य एवं आभ्यन्तर दो भेद हैं। जो तप प्रकट रूप में किया जाता है, वह बाह्य तप है। इसके विपरीत जिसमें मानसिक क्रिया की प्रधानता हो और जिसमें बाह्य द्रव्यों की प्रधानता न होने से जो सब पर प्रकट न हो. वह आभ्यन्तर तप है। बाह्य तप का यदि मुख्योद्देश्य आभ्यन्तर तप की पुष्टि करने का ही हो, तो वह भी निर्जरा का ही हेतु है। अज्ञानपूर्वक किया गया तप बालतप. कहलाता है, वह संवर और निर्जरा का कारण न होने से तप आचार नहीं कहलाता है। उसका यहां प्रसंग नहीं है। वह बाह्य तप निम्न प्रकार है- 1. संयम की पुष्टि, राग का उच्छेद, कर्म का विनाश और धर्मध्यान की वृद्धि के लिए यथाशक्य भोजन का त्याग करना अनशन तप। 2. भूख से कम खाना ऊनोदरी तप। 3. एक घर या एक गली तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप अभिग्रह धारण करना वृत्तिपरिसंख्यान तप कहलाता है। यह तप चित्तवृत्ति पर विजय पाने और आसक्ति को कम करने के लिए धारण किया जाता है। 4. अस्वादव्रत धारण करने को रसपरित्याग तप कहते हैं। 5. निर्बाधब्रह्मचर्य, स्वाध्याय-ध्यान की वृद्धि के लिए किया जाने वाला विविक्त शय्यासन तप कहलाता है। 6. आतापना लेना, शीत-उष्ण परीषह सहन करना कायक्लेश तप है। यह तप प्रवचन प्रभावना के लिए और तितिक्षा के लिए किया जाता है, लोच करना भी इसी तप में अन्तर्भूत हो जाता है। आभ्यन्तर तप के छः भेद निम्नलिखित हैं * 437*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy