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के द्वारा जब 'उपर्युक्त शास्त्रों की पूर्वापर विरोध या असंगत बातें उन्हीं ग्रन्थों में मिलती हैं, तब उन्हीं मिथ्यादृष्टि जीवों के जो पहले अभीष्ट ग्रन्थ थे, वे पीछे से अरुचिकर हो जाते हैं। कोई-कोई मनुष्य गलत स्वपक्ष को छोड़ कर सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं, फिर वे ही उन ग्रन्थ-शास्त्रों के विषयों की कांट-छांट करके उन्हें सम्यक्श्रुत के रूप में परिणत कर लेते हैं। जैसे कोई कारीगर अनघड़ लकड़ी आदि को लेकर छीलकर, तराशकर उस पर मीनाकारी करता है, तब वही वस्तु उत्तम-बहुमूल्य एवं जन-मनोरंजन का एक साधन बन जाती है। सम्यग्दृष्टि जीव में भी सम्यक्त्व के प्रभाव से मिथ्याश्रुत को सम्यक्श्रुत के रूप में परिणत करने की अपूर्व शक्ति हो जाती है, जो ग्रन्थ-शास्त्र पहले मिथ्यात्व के पोषक होते हैं, वे ही सम्यक्त्व के पोषक बन जाते हैं।
इस विषय को वृत्तिकार ने भी बड़े अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है, जैसे कि
"एतानि भारतादीनि शास्त्राणि मिथ्यादृष्टेमिथ्यात्वपरिगृहीतानि भवन्ति, ततो विपरीताभिनिवेशवृद्धिहेतुत्वान्मिथ्याश्रुतम्, एतान्येव च भारतादीनि शास्त्राणि सम्यग्दृष्टे: सम्यक्त्वपरिगृहीतानि भवन्ति, सम्यक्त्वेन यथावस्थिताऽसारतापरिभावनरूपेण परिगृहीतानि, तस्य सम्यक्श्रुतम्, तद्गताऽसारतादर्शनेन स्थिरतरसम्यक्त्वपरिणामहेतुत्वात्"-इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि के लिए लौकिक तथा लोकोत्तरिक सभी ग्रन्थ शास्त्र सम्यक्श्रुत हैं।
यहां शंका उत्पन्न होती है कि जैसे मिथ्याश्रुत के अन्तर्गत अनेक ग्रन्थ-शास्त्रों के नाम मूल सूत्र में दिए हैं तो क्या द्वादशांग सूत्रों के अतिरिक्त अन्य जो जैनों के ग्रन्थ हैं, वे सब सम्यक्श्रुत ही हैं? इस शंका का निराकरण वस्तुतः सूत्रकार ने स्वयं ही पहले सम्यक्श्रुत में कर दिया, फिर भी उसी सूत्र का आश्रय लेकर उत्तर दिया जाता है
ग्यारह अंग और कुछ न्यून दस पूर्वो का ज्ञान सम्यक्श्रुत होते हुए भी उन्हें मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व के कारण मिथ्याश्रुत बना लेता है। जैसे सर्प दूध को भी विष बना देता है, तथा दुर्गन्धित पात्र में शुद्धजल डाल देने से वह जल भी दुर्गन्धपूर्ण हो जाता है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि में सम्यक्श्रुत भी मिथ्याश्रुत के रूप में परिणत हो जाता है, सम्यग्दृष्टि में सम्यक्श्रुत होता है। एकान्त सम्यग्दृष्टि सम्पूर्ण दश पूर्वधरों से लेकर चौदह पूर्वधरों तक होते हैं। नीचे की ओर जितने पूर्वधर होते हैं या ग्यारह अंगों के अध्येता होते हैं, उनमें सम्यग्दृष्टि होने की भजना अर्थात् विकल्प है, सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि दोनों तरह के पाए जाते हैं। यदि कोई कुछ न्यून दस पूर्वो का अध्येता विद्वान है, किन्तु है मिथ्यादृष्टि, तो उसके रचित ग्रन्थ भी मिथ्याश्रुत ही होते हैं। ऐसी जैन सिद्धान्त की मान्यता है। जैन दर्शन यह नहीं कहता है कि "जो मेरा है, वह सत्य है।" उसका कहना तो यह है "जो सत्य है, वह मेरा है।" जैन नीति खण्डनमण्डन नहीं है। खण्डन-मण्डन उसे कहते हैं जो असत्य से सत्य का खण्डन करके, असत्य का मुख समुज्ज्वल करे। इस नीति को मुमुक्षुओं ने तथा सम्यग्ज्ञानियों ने कभी नहीं अपनाया। जैन
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