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________________ के अध्ययन करने से कोई जीव सम्यग्दृष्टि नहीं बन जाता। यदि वह पतन में कारण नहीं तो आत्मबोध में भी वह परम - सहयोगी नहीं है। जिससे आत्मबोध हो, वह सम्यक् श्रुत हैं और जिससे न सर्वथा पतन ही हो और न उत्थान ही, वह मिथ्या श्रुत कहलाता है। जैसे न्यायशास्त्र में पांच अन्यथा-सिद्ध बतलाए हैं, वैसे ही सम्यक्त्व लाभ तथा चारित्रशुद्धि में व्याकरण अन्यथा सिद्ध है, उससे मिथ्यात्व मल दूर नहीं होता। वह आध्यात्मिक शांस्त्र या सम्यक् श्रुत में प्रवेश करने के लिए सहायक अवश्य है, किन्तु आत्मबोध सम्यक् श्रुत से ही हो सकताहै, न कि व्याकरण के अध्ययनमात्र से। अब सूत्रकार मिथ्याश्रुत और सम्यक् श्रुत का अन्तिम निर्णय देते हैं एयाई मिच्छदिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं - जो मिथ्यादृष्टि के बनाए ग्रन्थ व साहित्य हैं, वे द्रव्य मिथ्याश्रुत हैं, उनके प्रणेता नियमेन मिथ्यादृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि में भावमिथ्याश्रुत होता है। उनके अध्येता यदि मिथ्यादृष्टि हैं, तो उनमें भी वही भावमिथ्या श्रुत होता है। जिस निमित्त से इन्सान कर्म- चाण्डाल कहलाता है। उच्चकुल एवं जाति में जन्मे हुए व्यक्ति में भी यदि वे ही निमित्त पाए जाएं, तो वह भी कर्मचाण्डाल कहलाता है । इन्सान बुरा नहीं, इन्सान में रही हुई बुराइयां बुरी हैं। बुराइयों से ज्ञानधारा भी मलिन हो जाती है और दृष्टि भी । जब दृष्टि ही गलत है, तब ज्ञान सच्चा कैसे हो सकता है ? जब निशान ही गलत है, तब तीर से लक्ष्य वेध कैसे हो सकता है? जो अपरिचित जंगल में स्वयं भटका हुआ है, उसके कथनानुसार यदि कोई अन्य पथिक चलेगा तो वह भी भटकता ही रहेगा। इसी प्रकार जो अध्यात्म मार्ग से भटके हुए हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं। उनके कथनानुसार जो व्यक्ति चलता है, वह भी पथभ्रष्ट ही कहलाता है। एयाइं चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तरिग्गहियाई सम्मसुयं - उन्हीं ग्रन्थों को यदि सम्यग्दृष्टि यथार्थरूप से ग्रहण करते हैं तो वे ही मिथ्याश्रुत सम्यक् श्रुत के रूप में परिणत हो जाते हैं। जैसे वैद्य विशिष्ट क्रिया से विष को भी अमृत बना देते हैं। समुद्र में पानी खारा होता है, जब समुद्र में से मानसून उठती हैं, तो वे कालान्तर में अन्य किसी क्षेत्र में बादल बन कर बरसती हैं, तब वही खारा पानी मधुर बन जाता है। सम्यक्त्व के प्रभाव से सम्यग्दृष्टि में मिथ्या श्रुत को भी सम्यक् श्रुत के रूप में परिणत करने की शक्ति हो जाती है । जैसे न्यारिया रेत में से भी स्वर्ण निकालता है, असार को फेंक देता है। जैसे हंस दूध को ग्रहण करता है, पानी को छोड़ देता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि की दृष्टि ठीक होने से, जिस दृष्टिकोण से मौलिक सिद्धान्त से समन्वित हो सकता है, उसी प्रकार से वह समन्वय करता है । और वह सर्वगुणों की आ (खान) बन जाता है। अहवा मिच्छदिट्ठिस्सवि एयाइं चेव 'सम्मसुयं' कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया, तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केई सपक्खदिट्ठिओ चयंति।' मिथ्यादृष्टियों को भी पूर्वोक्त सब ग्रन्थ सम्यक् श्रुत हो सकते हैं, जैसे कि सम्यग्दृष्टि 412❖
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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