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________________ जी का जन्म हुआ। बीस लाख पूर्व तक उन्होंने राजपाट करने योग्य भूमिका तैयार की। 63 लाख पूर्व तक उन्होंने राजपाट किया। उस समय लोग राजनीति से बिल्कुल अनभिज्ञ थे। राजनीति के अभाव में धर्मनीति नहीं चल सकती। अराजकता में धर्म का प्रादुर्भाव नहीं होता, यह विश्व का अनादि नियम है। ऋषभदेव जी गृहवास में आदर्श गृहस्थ बनकर रहे और राजावस्था में आदर्श राजा हुए। उन्होंने राजावस्था में राज-नीति से सम्बन्धित अनेक प्रकार की कलाएं और शिल्प अनभिज्ञ प्रजा को सिखाए। असि-मसि और कृषि विद्या से जनता को परिचित कराया। साम, दाम, भेद और दण्ड इस प्रकार चार तरह की राजनीति का श्रीगणेश किया। 83 लाख पूर्व तक राजनीति से सम्बन्धित सभी ज्ञातव्य विषयों से जनता को अवगत कराया। इतने लम्बे काल में उन्होंने धर्मबीज का वपन प्रजा के हृदय में नहीं किया, क्योंकि राजनीति धर्मनीति की भूमिका है। ऋषभदेव जी से पहले इस अवसर्पिणीकाल में कोई भी राजा नहीं हुआ। 72 कलाएं पुरुषों की, 64 कलाएं महिलाओं की, 100 प्रकार का शिल्प, ये सब विद्याएं राजनीति से ओत-प्रोत हैं अथवा इन्हें राजनीति की भूमिका भी कह सकते हैं। महामानव जिस कर्त्तव्य के स्तर पर खड़े होते हैं, वे उसका पालन उचित रीति से करते हैं। जब उन्होंने राजपाट को छोड़कर संन्यासाश्रम को अपनाया तब वे धर्म में संलग्न हो गए। साधना की चरम सीमा में पहुंच कर उन्होंने कैवल्य प्राप्त किया। तत्पश्चात् उन्होंने 72 कलाएं सीखने-सिखाने के लिए उपदेश नहीं दिया। जो आध्यात्मिक तत्त्व के पोषकपरिवर्द्धक हैं, उनका अपने प्रवचन में प्रकाश किया और उनके पालन करने के लिए आज्ञा दी है। धर्मकला के अतिरिक्त शेष कला के सीखने-सिखाने का स्पष्ट निषेध किया है। क्योंकि वे कलाएं धर्म मार्ग में हेय एवं त्याज्य हैं। धर्ममार्ग में धर्मनीति से भिन्न यावन्मात्र विश्व में कलाएं हैं, वे सब मिथ्या श्रुत हैं अर्थात् जो क्रियाएं राजनीति से सर्वथा भिन्न हैं, वही धर्मनीति हैं, सभी भावी तीर्थंकर गृहस्थाश्रम में राजनीति की मर्यादा में रहते हुए स्व-कर्त्तव्य का पालन करते हैं। मिथ्यात्व के अतिरिक्त सभी आश्रवों का सेवन करते हैं, और तो क्या समय आने पर रणांगण में रणकौशल भी दिखाते हैं। सप्त कुव्यसनों का सेवन करना राजनीति से विरुद्ध है। अत: वे उनका सेवन नहीं करते और न दूसरों को प्रेरणा करते हैं। देववाचक जी के युग में 72 कलाओं से सम्बन्धित जितने सूत्र, वार्तिक और भाष्य थे, वे सब उन्होंने मिथ्या श्रुत के अन्तर्भूत कर दिए । उन्होंने जिनवाणी को ही मुख्यतया सम्यक्श्रुत माना है, शेष सब मिथ्याश्रुत। . जो साहित्य अवगुणों के पोषक, विषय कषाय के वर्द्धक एवं सद्गुणों के शोषक हैं, उन्हें मिथ्याश्रुत कहा जाए तो कोई हानि नहीं। किन्तु इस सूत्र में तो व्याकरण को भी मिथ्याश्रुत कहा है, इसका क्या कारण है? ___ इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि केवल व्याकरण के अध्ययन करने मात्र से आत्म-तत्त्व का बोध नहीं होता, वह तो मात्र शब्द शुद्धि का एक साधन है। व्याकरण *411*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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