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________________ १०. मुत्तेसु अमुत्तसण्णा' - जो आत्मा कर्मबन्धन से सर्वथा विमुक्त हो गए हैं, उनमें अमुक्त संज्ञा रखना। आत्मा कभी भी परमात्मा नहीं बन सकता, अल्पज्ञ से सर्वज्ञ नहीं बन सकता, आत्मा कर्मबन्धन से न कभी मुक्त हुआ और न होगा, ऐसी मान्यता को भी मिथ्यात्व कहते हैं। जैसे असली रत्न - जवाहरात को नकली और नकली को असली समझने वाला जौहरी नहीं कहलातां, वैसे ही असत् - सत् की जिसे पहचान नहीं, वह सम्यग्दृष्टि नहीं, मिथ्यादृष्टि कहलाता है। कोई मुक्त होने पर भी पुन: समयान्तर में संसार में लौटना मानते हैं। कोई स्त्रियों के साथ रंगलीला करते हुए को भी भगवान मानते हैं। कोई परमदयालु भगवान को भी शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित तथा दुष्टों का विनाशक मानते हैं। कोई अभीष्ट ग्रन्थ को अपौरुषेय मानते हैं । कोई शून्यवाद को ही अभीष्ट तत्त्व मानते हैं। उनका कहना है कि विश्व में न जीव है और न अजीव ही । इस प्रकार की विपरीत दृष्टि को मिथ्यात्व कहते हैं। जब जीवात्मा मिथ्यात्व से अनुरंजित होता है, तब उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। अर्थात् मिथ्या है दृष्टि जिस की, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। उसके द्वारा रचित ग्रन्थ- शास्त्र को मिथ्या श्रुत कहा गया है। मनुष्य जिस ग्रन्थ - शास्त्र के पढ़ने व सुनने से हिंसा में प्रवृत्त हो । शान्तहृदय में द्वेषाग्नि भड़क उठे, कामाग्नि प्रचण्ड हो जाए, अभक्ष्य पदार्थों के सेवन करने में प्रोत्साहन मिले, सभी प्रकार की बुराइयों का जन्म हो, ऐसा साहित्य मिथ्या श्रुत है। विश्व में जितना भी अवगुणपोषक एवं परिवर्द्धक साहित्य है, वह सब मिथ्या श्रुत है। यदि किसी ग्रन्थ व साहित्य में प्रसंगवश व्यावहारिक तथा धार्मिक शिक्षाएं और जीवन-उत्थान में कुछ सहयोगी उपदेश भी हों, और साथ ही अनुपयुक्त बातें भी हों तो भी वह साहित्य मिथ्याश्रुत है, उदाहरण के रूप में मानो किसी ने सर्वोत्तम खीर परोसी और खाने वाले के सामने ही उसने थाली में विष की पुड़िया झाड़ दी, या उसमें रक्त-राधमल-मूत्र आदि डाल दिया, जैसे वह खाद्य पदार्थ विजातीय तत्त्व के मिल जाने से अखाद्य बन जाता है, वैसे ही जिस साहित्य में पूर्व - अपर विरोधी तत्त्वं या वचन पद्धति विरुद्ध पाई जाए, वह साहित्य मिथ्याश्रुत है । वह चाहे किसी संप्रदाय में, किसी देश में या किसी भी काल में विद्यमान हो, वह मिथ्या श्रुत है। आगमकार ने 72 कलाओं को मिथ्या श्रुत कहा है, जब कि उनका आविष्कार ऋषभदेव भगवान ने किया, फिर उन्हें मिथ्याश्रुत कहने या लिखने का क्या अभिप्राय है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरक को समाप्त होने में जब चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहते थे, तब ऋषभदेव 1. स्थानांग सूत्र, स्थान 10 *410*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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