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________________ का निरूपण, तप का विवेचन, कर्मग्रंथि भेदन के उपाय, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव के इतिहास, रत्नत्रय का विश्लेषण इत्यादि अनेक विषयों का जिनमें यथार्थ निरूपण किया गया है, ऐसी भगवद्वाणी को गणधरों ने बारह पिटकों में भर दिया है। जिस पिटक का जैसा नाम है, उसमे वैसे ही सम्यक्श्रुतरत्न निहित हैं। उनके नाम निम्नलिखित हैं___ 1. आचारांग, 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4. समवायांग, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6. ज्ञाताधर्मकथांग, 7. उपासकदशांग, 8. अन्तकृद्दशांग, 9. अनुत्तरौपपातिकदशांग, 10. प्रश्नव्याकरण, 11. विपाकश्रुत, 12. दृष्टिवादांग। ये बारह पिटकों के पवित्र नाम हैं। यही आचार्य के पिटक हैं। वृत्तिकार भी इस विषय में लिखते हैं "गणिपिडगं त्ति गणो-गच्छो गुणगणो वाऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटकमिवपिटकं सर्वस्वमित्यर्थः, गणिपिटकम्। अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनोऽप्यस्ति, तथा चोक्तम् “आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥ गणीनां पिटकंगणिपिटकं परिच्छेद समूह इत्यर्थः। अंग-परमपुरुष के अंग की भान्ति ये सम्यक्-श्रुत के अंग कहलाते हैं, जैसे कि कहा भी है प्रणीतम्, अर्थकथनद्वारेण प्ररूपितं, किं तदित्याह "द्वादशांग' श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्यांगानीवांगानि, द्वादशांगानि, आचारांगादीनि यस्मिन् तद् द्वादशांगम्।" . अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि अरिहन्त भगवन्तों के अतिरिक्त अन्य जो श्रुतज्ञानी हैं, वे भी क्या आप्त पुरुष हो सकते हैं ? हां, हो सकते हैं। सम्पूर्ण दस पूर्वधर से लेकर चौदह पूर्वधर तक जितने भी ज्ञानी हैं, उनका कथन नियमेन सम्यक्श्रुत ही होता है, ऐसा सूत्रकार का अभिमत है। किंचिन्न्यून दस पूर्व से पहले-पहले जो पूर्वधर हैं, उन में सम्यक् श्रुत की भजना है अर्थात् विकल्प है, कदाचित् सम्यक्श्रुत हो, कदाचित् मिथ्याश्रुत। एकान्त मिथ्यादृष्टि जीव भी पूर्वो का अध्ययन कर सकते हैं, किन्तु वे अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्वो का अध्ययन कर सकते हैं, क्योंकि उनका ऐसा ही स्वभाव है। जैसे अभव्यात्मा यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रन्थिदेश में पहुंचने पर भी उस का भेदन नहीं कर सकता, तथास्वभाव होने से। इस विषय में वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं, जैसे कि _ "एतदेव श्रुतं परिमाणतो व्यक्तं दर्शयति-इत्येतद् द्वादशांगं गणिपिटकं यच्चतुर्दशपूर्वी तस्य सकलमपि सामायिकादिबिन्दुसारपर्यवसानं नियमात् सम्यक्श्रुतं, ततोऽधोमुखपरिहान्या नियमतः सर्वं सम्यक्श्रुतं तावद् वक्तव्यं यावदभिन्नदशपूर्विणः-सम्पूर्णदशपूर्वधरस्य, सम्पूर्णदशपूर्व धरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग्दृष्टेरेव न मिथ्यादृष्टस्तथास्वभावात्।" तथा हि यथा अभव्यो ग्रन्थिदेशमुपागतोऽपि तथास्वभावत्वान्न ग्रन्थिभेद *406
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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