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"जो पुण संचिंतेउ, इट्ठाणिढेसु विसयवत्थूसुं । - वत्तंति नियत्तंति य, सदेह परिपालणा हेउं ॥
पाएण संपइ च्चिय, कालम्मिन याइ दीहकालण्णू।
ते हेउवायसन्नी, निच्चिट्ठा होंति असण्णी ॥ इसका भाव यह है कि ईहा आदि चेष्टा द्वारा संज्ञी और अचेष्टा द्वारा असंज्ञी जाने जाते
'अन्यत्रापि हेतूपदेशेन संज्ञित्वमाश्रित्योक्तम्कृमिकीटपतंगाद्याः, समनस्काः जंगमाश्चतुर्भेदाः ।
अमनस्का: पंचविधाः, पृथिवीकायादयो जीवाः॥" इससे भी उपर्युक्त दृष्टिकोण की पुष्टि होती है।
दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी और असंज्ञी दृष्टिवादोपदेश-दृष्टि दर्शन का नाम है-सम्यग्ज्ञान का नाम संज्ञा है,ऐसी संज्ञा जिसके हो, वह संज्ञी कहलाता है।
"संज्ञानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञानं तदस्यास्तीति संज्ञी-सम्यग्दृष्टिस्तस्य यच्छ्रतं, तत्संज्ञिश्रुतं सम्यक् श्रुतमिति।" जो सम्यग्दृष्टि क्षयोपशम ज्ञान से युक्त है, वह दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी कहलाता है। वह यथाशक्ति. राग आदि भाव शत्रुओं के जीतने में प्रयत्नशील होता है। वस्तुतः हिताहित, प्रवृत्ति-निवृत्ति सम्यग्दर्शन के बिना नहीं हो सकती, जैसे कि कहा भी है... "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणाः ।
- तमसः कुतोऽस्ति शक्ति -दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥"
अर्थात् वह ज्ञान ही नहीं है, जिसके प्रकाशित होने से राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ, मोह ठहर सकें। भला सूर्य के उदय होने पर क्या अन्धकार ठहर सकता है ! कदापि नहीं। मिथ्यादृष्टि असंज्ञी कहलाते हैं, क्योंकि मिथ्याश्रुत के क्षयोपशम से असंज्ञी होता है। यह दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षा से संज्ञी और असंज्ञीश्रुत का वर्णन किया गया है।
. यदि इस स्थान पर यह शंका की जाए कि पहले सूची-कटाह न्याय से हेतु-उपदेश के द्वारा संज्ञीश्रुत एवं असंज्ञी श्रुत का उल्लेख करना चाहिए था, क्योंकि इसका विषय भी अल्प है, हेतु-उपदेश सबसे अशुद्ध एवं अप्रधान है। तदनन्तर दीर्घकालिकी उपदेश का वर्णन अधिक उचित प्रतीत होता है, फिर सूत्रकार ने इस क्रम को छोड़कर उत्क्रम की शैली क्यों ग्रहण की? इसके उत्तर में यह कहा जाता है कि सूत्रकार का विज्ञान सर्वतोमुखी होता है। आगमों में यत्र तत्र सर्वत्र दीर्घकालिकी उपदेश के द्वारा संज्ञी और असंज्ञी का वर्णन मिलता है। क्योंकि दीर्घकालिकी उपदेश प्रधान है, और हेतु उपदेश अप्रधान, जैसे कि कहा भी है
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