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"सण्णित्ति असण्णित्ति य, सव्व सुए कालिओवएसेणं । पायं संववहारो कीरइ, तेणाइओ स कओ ॥ "
यदि सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाए तो आत्मविकास के लिए सर्वप्रथम अत्यन्तोपयोगी दीर्घकालिकी उपदेश से संज्ञी का होना अनिवार्य है। जो सम्यक्त्व के अभिमुख हैं, ऐसे संज्ञी जीव पहले भेद में समाविष्ट हैं। जिन्होंने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है और जो सम्यक्त्व अवस्था में ही हैं, ऐसे जीव दृष्टिवादोपदेश में समाविष्ट हैं। जो एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं, वे हेतुवादोपदेश में अन्तर्भूत हो जाते हैं। जो कालिकी-उपदेश से संज्ञी हैं, वे हेतु-उपदेश से संज्ञी कहलाते हैं। दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षा से पूर्वोक्त दोनों प्रकार के संज्ञी, असंज्ञी ही हैं, निश्चय में सम्यग्दृष्टि ही संज्ञी हैं। सूत्र व्यवहार में दीर्घकालिकी - उपदेश से समनस्क सम्यक्त्वाभिमुख जीव संज्ञी हैं। शेष अमनस्क जीव असंज्ञी कहलाते हैं। लोक-व्यवहार में चलने-फिरने वाले सूक्ष्म-स्थूल, कीटाणु से लेकर हाथी, मच्छ आदि तक, तिर्यंच, मनुष्य, नारकी-देव सभी हेतु उपदेश से संज्ञी हैं। इसकी दृष्टि में असंज्ञी तो केवल पांच स्थावरं ही हैं। उपर्युक्त क्लथन से यह सिद्ध हुआ कि संसार में जितने भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व हैं, उन सभी में श्रुत विद्यमान है। भले ही वे असंज्ञी ही क्यों न हों, फिर भी श्रुत उनमें यत्किंचित् होता ही है ।। सूत्र 40 ॥
५. सम्यक्श्रुत
मूलम् - से किं तं सम्मसुअं ? सम्मसुअं जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णनाणदंसणधरेहिं, तेलुक्क - निरिक्खिअ - महिअ - पूइएहिं, तीय पडुप्पण्ण-मणागय-जाणएहिं, सव्वण्णूहिं, सव्वदरिसीहिं, पणीअं दुवालसंगं गणि-पिडगं, तं जहा
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१. आयारो, २. सूयगडो, ३. ठाणं, ४. समवाओ, ५. विवाहपण्णत्ती, ६. नायाधम्मकहाओ, ७. उवासगदसाओ, ८. अंतगडदसाओ, ९. अणुत्तरोववाइयदसाओ, १०. पण्हावागरणाई, ११. विवागसुअं, १२. दिट्ठिवाओ, इच्चेअं दुवालसंगं गणिपिडगं - चोद्दसपुव्विस्स सम्मसुअं, अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा, से त्तं सम्मसुअं ॥ सूत्र ४१ ॥
छाया - अथ किं तत् सम्यक् श्रुतम् ? सम्यक् श्रुतं यदिदम् अर्हद्भिर्भगवद्भिरुत्पन्नज्ञान - दर्शनधरैस्त्रैलोक्य-निरीक्षित-महित- पूजितैः, अतीत- प्रत्युत्पन्नानागतज्ञायकेः, सर्वज्ञैः, सर्वदर्शिभिः, प्रणीतं द्वादशांग-गणि-पिटकं तद्यथा
१. आचारः, २. सूत्रकृतम्, ३ स्थानम्, ४. समवायः, ५. व्याख्यांप्रज्ञप्तिः,
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