________________
। "इह दीहकालिगी कालिगित्ति, सण्णा जया सुदीहपि । संभरइ भूयमेस्सं, चिंतेइ य किण्णु कायव्वं ? ॥ कालिय सन्नित्ति तओ, जस्स मई सो य तो मणो जोग्गे।
संधेऽणते घेत्तुं, मन्नइ तल्लद्धि संपत्तो ॥" इसकी व्याख्या ऊपर लिखी जा चुकी है। जिस प्रकार चक्षु होने पर प्रदीप के प्रकाश से अर्थ स्पष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मनोलब्धि सम्पन्न मनोद्रव्य के आधार से विचार विमर्श आदि द्वारा जो वस्तु तत्त्व को भलीभांति जानता है, वह संज्ञी और जिसे मनोलब्धि प्राप्त नहीं है, उसे असंज्ञी कहते हैं। असंज्ञी में समूर्छिम पंचेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रयजाति, त्रीन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति के जीवों का अन्तर्भाव हो जाता है। शंका पैदा होती है कि सूत्र में जब कालिकी उपदेश है, तब दीर्घकालिकी उपदेश कैसे है? इसके उत्तर में कहा जाता है कि भाष्यकार ने भी दीर्घकालिकी ही लिखा है। वृत्तिकार ने कारण बताया है-"तत्र कालिक्युपदेशे- नेत्यत्रादिपदलोपाद्दीर्घकालिक्युपदेशेनेतिद्रष्टव्यम्।" .
जिस प्रकार मनोलब्धि, स्वल्प, स्वल्पतर और स्वल्पतम होती है, उसी प्रकार अस्पष्ट, अस्पष्टतर और अस्पष्टतम अर्थ की प्राप्ति हो सकती है। वैसे ही संज्ञी पंचेन्द्रिय से सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय में अस्पष्ट ज्ञान होता है, उससे चतुरिन्द्रिय में न्यून, त्रीन्द्रिय में कुछ कम और द्वीन्द्रिय में अस्पष्टतर होता है। एकेन्द्रिय में अस्पष्टतम अर्थ की प्राप्ति हो सकती है। अतः असंज्ञिश्रुत होने से सब असंज्ञी जीव कहलाते हैं। ... ___ हेतु-उपदेश-जो बुद्धिपूर्वक स्वदेह पालन के लिए इष्ट आहार आदि में प्रवृत्ति और अनिष्ट आहार आदि से निवृत्ति पाता है, वह हेतु उपदेश से संज्ञी कहा जाता है, इससे विपरीत असंज्ञी। इस दृष्टि से चार त्रस संज्ञी हैं और पांच स्थावर असंज्ञी। जैसे गौ-बैल आदि पशु अपने घर स्वयमेव आ जाते हैं, मधुमक्खी इतस्ततः मकरन्द पान कर पुनः अपने स्थान में पहुंच जाती है, निशाचर, मच्छर आदि जीव दिन में छिपे रहते हैं, रात को बाहर निकलते हैं। मक्खियां भी सायंकाल होने पर सुरक्षित स्थान में बैठ जाती हैं, जो धूप से छाया में और छाया से धूप में आते-जाते हैं, दुःख से बचने का प्रयास करते हैं, वे संज्ञी हैं। और जिन जीवों के बुद्धिपूर्वक इष्ट अनिष्ट में प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं होती, वे असंज्ञी, जैसे-वृक्ष, लता, पांच स्थावर। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो पांच स्थावर ही असंज्ञी होते हैं, शेष सब संज्ञी।
इस विषय में भाष्यकार का भी यही अभिमत है, जैसे कि
1. इह दीर्घकालिकी, कालिकीति संज्ञा यया सुदीर्घमपि।
स्मरति भूतमेष्यं, चिन्तयति च कथं नु कर्त्तव्यम्।। कालिकी संज्ञीति, सको तस्य मतिः स च ततो मनोयोग्यान्। स्कन्धाननन्तान् गृहीत्वा, मन्यते. तल्लब्धि सम्पन्नः।।
-
-400*