SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुजी ने उत्तर दिया-संज्ञिश्रुत तीन प्रकार का वर्णन किया है, जैसे१. कालिकी-उपदेश से, २. हेतु-उपदेश से और ३. दृष्टिवाद-उपदेश से। १. वह कालिकी-उपदेश से संज्ञिश्रुत किस प्रकार का है? कालिकी-उपदेश से-जिसे ईहा, अपोह-निश्चय, मार्गणा-अन्वय-धर्मान्वेषणरूप, गवेषणा-व्यतिरेक-धर्मस्वरूप पर्यालोचन, चिन्ता-कैसे या कैसे हुआ अथवा होगा? इस प्रकार पर्यालोचन, विमर्श-यह वस्तु इस प्रकार संघटित होती है, ऐसा विचारना। उक्त प्रकार जिस प्राणी की विचारधारा है, वह संज्ञी कहा जाता है। जिसके ईहा, अपाय, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श ये नहीं हैं, वह प्राणी असंज्ञी होता है। सो यह कालिकी उपदेश से संज्ञी व असंज्ञीश्रुत कहलाता है। . २. वह हेतु-उपदेश से संज्ञिश्रुत किस प्रकार है? हेतु-उपदेश से-जिस जीव की अव्यक्त व व्यक्त से विज्ञान के द्वारा आलोचन पूर्वक क्रिया करने की शक्ति-प्रवृत्ति है, वह संज्ञी, इस प्रकार उपलब्ध होता है। जिस प्राणी की अभिसंधारणपूर्विका करणशक्ति-विचारपूर्वक क्रिया करने में प्रवृत्ति नहीं है, वह असंज्ञी-इस प्रकार उपलब्ध होता है। इस प्रकार हेतूपंदेश से संज्ञी कहा जाता है। ___३. दृष्टिवाद-उपदेश से संज्ञीश्रुत किस प्रकार है? दृष्टिवाद-उपदेश की अपेक्षा से संज्ञिश्रुत के क्षयोपशम से संज्ञी इस प्रकार कहा जाता है, असंज्ञिश्रुत के क्षयोपशम से असंज्ञी, ऐसा उपलब्ध होता है। यह दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी है। इस प्रकार संज्ञिश्रुत है। इस तरह असंज्ञिश्रुत पूर्ण हुआ ॥ सूत्र ४० ॥ टीका-इस सूत्र में संज्ञिश्रुत और असंज्ञिश्रुत की परिभाषा बतलाई है। जिसके संज्ञा हो, वह संज्ञी और जिसके संज्ञा न हो, वह असंज्ञी कहलाता है। संज्ञी और असंज्ञी तीन प्रकार के होते हैं, न कि एक ही प्रकार के। इसके तीन भेद वर्णन किए हैं-दीर्घकालिकी उपदेश, हेतूपदेश और दृष्टिवाद-उपदेश, इन की अलग-अलग व्याख्या सूत्रकर स्वयं करते हैं, जैसे कि - दीर्घकालिकी उपदेश-जिसके ईहा-सदर्थ के विचारने की बुद्धि है। अपोह-निश्चयात्मक विचारणा है। मार्गणा-अन्वयधर्मान्वेषण करना। गवेषणा-व्यतिरेक धर्म स्वरूप पर्यालोचन। चिन्ता-यह कार्य कैसे हुआ, वर्तमान में कैसे हो रहा है और भविष्य में कैसे होगा? इस प्रकार के विचार विमर्श से वस्तु के स्वरूप को अधिगत करने की जिसमें शक्ति है, उसे संज्ञी कहते हैं। जो गर्भज, औपपातिक देव और नारकी, मन:पर्याप्ति से सम्पन्न हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं। कारण कि त्रैकालिक विषयक चिन्ता विमर्श आदि उन्हीं के संभव हो सकता है। भाष्यकार भी इसी मान्यता की पुष्टि करते हैं, जैसे कि *399*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy