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________________ मति-जो ज्ञान वर्तमान विषयक हो। प्रज्ञा-विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न यथावस्थित वस्तुगतधर्म का पर्यालोचन करना। बुद्धि-अवाय का अन्तिम परिणाम, इन सबका समावेश आभिनिबोधिक ज्ञान में हो जाता है। जातिस्मरण ज्ञान भी मतिज्ञान की अपर पर्याय है। जातिस्मरण ज्ञान से उत्कृष्ट नौ सौ (900) संज्ञी के रूप में अपने भव जान सकता है, जब मतिज्ञान की पूर्णता हो जाती है, तब वह ज्ञान नियमेन अप्रतिपाति हो जाता है। वह निश्चय ही उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। किन्तु जघन्य-मध्यम मतिज्ञानी को इस भव में केवलज्ञान उत्पन्न होने की भजना है, हो और न भी हो। यह मतिज्ञान का विषय समाप्त हुआ। ।। सूत्र 37 ।। २. श्रुतज्ञान मूलम्-से किंतं सुयनाणपरोक्खं ? सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविहं पन्नत्तं, तं जहा-१. अक्खर-सुयं, २. अणक्खर-सुयं, ३. सण्णि -सुयं, ४. असण्णि -सुयं, ५. सम्म-सुयं, ६. मिच्छ-सुयं, ७. साइयं, ८. अणाइयं, ९. सपज्जवसियं, १०. अपज्जवसियं, ११. गमियं, १२. अगमियं, १३. अंगपविळं, १४. अणंगपविठं ॥ सूत्र ३८ ॥ - छाया-अथ किं तच्श्रुत-झानपरोक्षं श्रुतज्ञानपरोक्षं चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा१. अक्षर-श्रुतम्, २. अनक्षर-श्रुतं, ३. संज्ञि-श्रुतं, ४. असंज्ञि-श्रुतं, ५. सम्यक्-श्रुतं, ६. मिथ्या श्रुतं, ७. सादिकम्, ८. अनादिकम्, ९. सपर्यवसितम्, १०. अपर्यवसितं, ११. गमिकम्, १२. अगमिकम्, १३. अंग-प्रविष्टम्, १४. अनंग-प्रविष्टम् ॥सूत्र ३८ ॥ भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया-गुरुदेव ! वह श्रुतज्ञान-परोक्ष कितने प्रकार का है ? गुरु ने उत्तर दिया-हे शिष्य ! श्रुतज्ञान-परोक्ष चौदह प्रकार का है। जैसे-१. अक्षरश्रुत, २. अनक्षरंश्रुत, ३. संज्ञिश्रुत, ४. असंज्ञिश्रुत, ५. सम्यक्श्रुत, ६. मिथ्याश्रुत, ७. सादिकश्रुत, ८. अनादिकश्रुत, ९. सपर्यवसितश्रुत, १०. अपर्यवसितश्रुत, ११. गमिकश्रुत, १२. अगमिकश्रुत, १३. अंगप्रविष्टश्रुत और, १४. अनंगप्रविष्टश्रुत ॥ सूत्र ३८ ॥ ___टीका-मतिज्ञान की तरह श्रुतज्ञान भी परोक्ष है, श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर सूत्रकार ने मतिज्ञान के पश्चात् श्रुतज्ञान का वर्णन प्रारम्भ किया है। इस सूत्र में श्रुतज्ञान के 14 भेदों का नामोल्लेख किया है-जैसे कि अक्षर, अनक्षर, संज्ञी, असंही, सम्यक्, मिथ्या, सादि, अनादि, सान्त, अनन्त, गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट और अंगबाहिर ये 14 भेद श्रुतज्ञान के कथन किए गए हैं। इनकी व्याख्या क्रमशः सूत्रकर्ता स्वयमेव आगे करेंगे। किन्तु यहां पर शंका उत्पन्न होती है कि जब अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत दोनों में शेष भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है, तब शेष 12 भेदों का नामोल्लेख क्यों किया है? * 391*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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