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किसी तपस्वी शिष्य ने तपोऽनुष्ठान करना है, तप भी स्वयं मांगलिक है, फिर भी उसे ग्रहण करने से पूर्व गुरु की आज्ञा, सविनय वन्दन, नमस्कार ये सब उस तप:कर्म की पूर्णाहुति में कारण होने से मंगल रूप हैं। उसी प्रकार शास्त्र भी मंगलरूप है, सम्यक् ज्ञान में प्रवृत्तिजनक होने से आनन्दप्रद भी है अतः अनेक दृष्टिकोणों से शास्त्र स्वयं मंगलकारी है, फिर भी अध्ययन-अध्यापन, रचना एवं संकलन करने से पूर्व अध्येता या प्रस्तोता का यह परम कर्त्तव्य हो जाता है कि अपने अभीष्ट शासन देव को तथा अन्य संयम-परायण श्रद्धास्पद बहुश्रुत मुनिवरों को वन्दन और गुणग्राम करे, क्योंकि उनके गुणानुवाद करने से विघ्नों का समूह स्वयं उपशान्त हो जाता है। उसके अभाव होने पर कार्य में सफलता निश्चित है। यदि प्रगतिबाधक विघ्न पहले से ही शान्त हैं, तो मंगलाचरण आध्यात्मिक दृष्टि से निर्जरा का कारण है तथा पुण्य का भी कारण हो जाता है । इसीलिए नन्दी के आदि में स्तुतिकार ने मंगलाचरण किया है। मंगलाचरण में असाधारण गुणों की स्तुति की जाती है। मंगलाचरण स्वपर प्रकाशक होता है। नन्दी में मंगलाचरण करने से देववाचक जी को तो लाभ हुआ ही है, किन्तु इस मंगलाचरण के पठन और श्रवण से दूसरों को भी लाभ होता है। श्रीसंघ तथा श्रतुधर आचार्यों के प्रति उन्होंने श्रद्धा बढ़ाई है । चतुर्विध संघ ही भगवान है, उसकी विनय भक्ति बहुमान करना ही भगवद्भक्ति है उसका अपमान करना भगवान् का अपमान है, यह देववाचक जी के अन्तरात्मा की अन्तर्ध्वनि है। इन्सान शुभरूप उद्देश्य की पूर्ति चाहता है, जिसकी पूर्ति उसकी नजरों में कठिन सी प्रतीत हो रही है, उसकी पूर्ति के लिए मंगलाचरण की शरण लेता है । कार्य में सफलता होने पर उसमें अहंभाव न आ जाए, उसमें ऐसी भावना प्रायः होती है कि यह सफलता मेरी शक्ति से नहीं, बल्कि मंगलाचरण की शक्ति से हुई है, अन्यथा अहंभाव आए बिना नहीं रह सकता । अहंभाव, विनय का नाश और विघ्नों का आह्वान करता है। मंगलाचरण से अचिन्त्य लाभ
१. विजोपशमन-जैसे मार्तण्ड के प्रकाश से सर्वत्र तिमिर का नाश हो जाता है, उसी प्रकार मंगलाचरण करने से विघ्नसमूह स्वयं प्रनष्ट हो जाते हैं, भले ही कंटकाकीर्ण मार्ग क्यों न हो, वह हमारे लिये स्वच्छ, निष्कंटक बन जाता है। हमारे ध्येय की पूर्ति निराबाध पूर्ण हो जाती है । सभी आने वाले विघ्न उपशान्त हो जाते हैं। .. २. श्रद्धा-मंगलाचरण करने से अपने इष्टदेव के प्रति श्रद्धा दृढ़ होती है, कहा भी है कि-"सद्धा परम दुल्लहा" श्रद्धा का प्राप्त होना दुर्लभ ही नहीं, अपितु परम दुर्लभ है। श्रद्धा साधना की आधारशिला है, श्रद्धा से ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। "श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्" श्रद्धा ही आत्मोन्नति का मूल मंत्र है। जिससे श्रद्धा दृढ़तर बने साधक को वही कार्य करना चाहिए।
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