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३. आदर- मंगलाचरण करने से अपने इष्टदेव एवं उद्देश्य दोनों के प्रति आदर बढ़ता है। जहां बहुमान है, वहां अविनय, आशातना, अवहेलना हो जाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, साधक दोषों से सर्वथा सुरक्षित रहता है।
४. उपयोग-जब कोई अपने इष्टदेव के असाधारण गुणों की स्तुति करता है, तब उपयोग विशुद्ध एवं स्वच्छ हो जाता है और आत्मा में परमात्मतत्व झलकने लग जाता है I
५. निर्जरा - मंगलाचरण करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है। जिस प्रकार तैलादि से अतिमलिन वस्त्र कुछ काल तक सोडा या साबुनमिश्रित जल में भिगोये रखने से चिकनाई एवं मलिनता दोनों ही उसी से विलय हो जाती हैं, उसी प्रकार मंगलाचरण करने से कर्मों की निर्जरा होती है।
६. अधिगम - मंगलाचरण करने से प्रमाण-नयों के द्वारा उत्पन्न होने वाला जो सम्यक्त्व है, उसका लाभ होता है। जो सम्यक्त्व की उत्पत्ति का विशिष्ट निमित्त हो, वह अधिगम हैं। अथवा अधिगम विज्ञान को भी कहते हैं। विज्ञान की वृद्धि या अधिगम ये मंगलाचरण के कार्य हैं।
७. भक्ति - भज् सेवायाम् धातु से भक्ति शब्द बनता है। जब मन में भक्ति भाव की वृद्धि होती है, तब वह इष्टदेव को सर्वस्व समर्पण कर देता है। भक्त अपने अधीन कुछ भी नहीं रखता । भक्ति भी एक प्रकार से आत्मा की मस्ती है। जिस समय कोई उसमें तल्लीन हो जाता है, तो सिवाय इष्टदेव के अन्य के प्रति उसे अपनत्व नहीं रहता । मोह-ममता से उसके भाव अछूते रहते हैं । मंगलाचरण से भक्ति में अभिवृद्धि होती है।
८. प्रभावना - जिससे दूसरों पर प्रभाव पड़े, जो दूसरों के लिये मार्ग प्रदर्शन करे, वह प्रभावना कहलाती है। मंगलाचरण मन से भी किया जा सकता है, ध्यान द्वारा भी किया जा. सकता है और स्मरण से भी । मंगलाचरण लिपिबद्ध करने की जो परम्परा चली आ रही है, वह देहली दीपक न्याय को चरितार्थ करती है तथा वह स्व पर प्रकाशिका है। इसमें अपना कल्याण है और दूसरों के लिये मार्ग प्रशस्त बनता है। मंगलाचरण की परम्परा को अविच्छिन्न रखना ही आचार्यों का मुख्य उद्देश्य रहा है, ताकि भविष्य में होने वाले शिष्य - प्रशिष्य भी इसी मार्ग का अनुसरण करें। अस्तु मंगलाचरण से प्रभावना भी होती है ।
मंगलाचरण करने से जीव को उपर्युक्त आठ प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है। अतः राजदर्शन के समय, निधान खोलते समय और विद्या आरम्भ के समय, मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए। उत्कृष्ट भावों से किया हुआ मंगलाचरण निष्फल नहीं जाता, यह एक निश्चित सिद्धान्त है।
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