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कथं न विरोधः? सत्यमेतत्, किन्त्वविवक्षयित्वा मतिज्ञानचक्षुरादिदर्शनयोर्भेदं मतिज्ञानमष्टाविंशतिधोच्यते इति पूज्या व्याचक्षते-इति।"
इस वृत्ति का सारांश यह है कि मतिज्ञानी सर्व द्रव्यों को अवाय और धारणा की अपेक्षा से जानता और अवग्रह तथा ईहा की अपेक्षा से देखता है, क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान के बोधक हैं और अवग्रह व ईहा ये दोनों दर्शन के बोधक हैं। अत: पासइ यह क्रिया ठीक ही है, किन्तु नन्दीसूत्र के वृत्तिकार यह लिखते हैं कि न पासइ से यह अभिप्राय है कि धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के सर्व पर्याय आदि को नहीं देखता। वास्तव में दोनों ही अर्थ यथार्थ
हैं ।
२. क्षेत्रत:-मतिज्ञानी आदेश से सभी लोकालोक क्षेत्र को जानता है, किन्तु देखता नहीं। ३. कालतः-मतिज्ञानी आदेश से सभी काल को जानता है, किन्तु देखता नहीं।
४. भावतः-आभिनिबोधिकज्ञानी आदेश से सभी भावों को जानता है, किन्तु देखता नहीं। भाष्यकार ने दो गाथाओं में उक्त विषय को स्पष्ट किया है, यथा
"आएसो त्ति पगारो, ओघाएसेण सव्वदव्वाई। धम्मत्थिकाइयाई, जाणइ न उ सव्वभावेणं ॥
खेत्तं लोकालोकं, कालं सव्वद्धमहव तिविहं वा ।
पंचोदयाईए • भावे, जं नेयमेवइयं ॥' अतः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में चारों संक्षेप से मतिज्ञान के वस्तु भेद वर्णन किए गए हैं। अर्थों के सामान्य रूप से तथा अव्यक्त रूप से ग्रहण करना अवग्रह, तत्पश्चात् पदार्थों के पर्यालोचन रूप विचार को ईहा, पदार्थों के यथार्थ निर्णय को अवाय और धारण करने को धारणा कहते हैं। किन्तु 76वीं गाथा पाठान्तर रूप में इस प्रकार भी देखी जाती है.. . “अत्थाणं उग्गहणं च उग्गह, तह वियालणं ईह।
ववसायं च अवायं, धरणं पुण धारणं बिंति ॥" अब सूत्रकर्ता इन चारों के काल-मान के विषय में कहते हैं
अवग्रह का नैश्चयिक काल पहला समय, (जिसके दो भाग न हो सकें, अविभाज्य काल को समय कहा जाता है।) ईहा और अवाय का कालपरिमाण अन्तर्मुहूर्त, (दो समय से लेकर कुछ न्यून 48 मिनट पर्यन्त को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं।) धारणा संख्यातकाल तथा असंख्यात काल प्रमाण रह सकती है। यह कालमान आयु की दृष्टि से और भव की दृष्टि से समझना चाहिए। जैसे-किसी की आयु पल्योपम अथवा सागरोपम परिमित है। जीवन के पहले भाग में कोई विशेष शुभाशुभ कारण हो गया, उसे आयु पर्यन्त स्मृति में रखना, वह धारणा कही जाता है। भव आश्रय से भी जैसे किसी को जातिस्मरण ज्ञान हो जाने से गत अनेक भवों का स्मरण हो आना, असंख्यातकाल को सूचित करता है।
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