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________________ टीका - इस सूत्र में मतिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संक्षेप में चार भेद वर्णन किए गए हैं, जैसे १. द्रव्यतः- द्रव्य से आभिनिबोधिकज्ञानी आदेश से सभी द्रव्यों को जानता है, परन्तु देखता नहीं। प्रस्तुत प्रकरण में 'आदेश' शब्द प्रकार का वाची है, वह सामान्य और विशेषरूप, इस प्रकार दो भेदों में विभक्त है, किन्तु यहां पर तो केवल सामान्यरूप ही ग्रहण करना चाहिए। अतः मतिज्ञानी सामान्य आदेश के द्वारा धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्यों को जानता है, किन्तु कुछ विशेषरूप से भी जानता है अथवा मतिज्ञानी सूत्रादेश के द्वारा सर्व द्रव्यों को जानता है, परन्तु साक्षात् रूप से नहीं देखता है। यहां शंका हो सकती है कि जो सूत्र के आदेश से द्रव्यों का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो श्रुत ज्ञान हुआ, किंतु यह प्रकरण है, मतिज्ञान का इस शंका का निराकरण करते हुए कहा जाता है कि यह श्रुत है, न तु श्रुतज्ञान, क्योंकि श्रुतनिश्रित को भी मतिज्ञान प्रतिपादन किया गया है। इस विषय में भाष्यकार का भी यही अभिमत है, यथा “आदेसो त्ति व सुत्तं, सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं पसरइ तब्भावणया, विणावि सुत्ताणुसारेणं ॥” अतः इसे मतिज्ञान ही जानना चाहिए, श्रुतज्ञान नहीं। तथा सूत्रकार ने आएसेणं सव्वाई दव्वाइं जाणइ न पासइ इसमें 'न पासइ' पद दिया है, किन्तु व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र' में - " दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्व दव्वाई जाणइ, पासइ" ऐसा पाठ दिया गया है। इसके विषय में वृत्तिकार अभयदेवसूरि निम्न प्रकार से लिखते हैं " दव्वओ णं, इति द्रव्यमाश्रित्याभिनिबोधिक ज्ञानविषयं द्रव्यं वाश्रित्य यदा आभिनिबोधिकज्ञानं तत्र आएसेणं ति आदेशः - प्रकार : सामान्यविशेषरूपस्तत्र चादेशेनओघतो द्रव्यमात्रतया न तु तद्गत सर्वविशेषापेक्षयेति भाव:, अथवा आदेशेन श्रुतपरिकर्मितया सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते, ज्ञानस्यावायधारणारूपत्वात् ‘पासइ' ति पश्यति, अवग्रहेहापेक्षयाऽवबुध्यते, अवग्रहेहयो दर्शनत्वात्, आह च भाष्यकारः " नाणमवायधिईओ, दंसणमिट्ठ जहोग्गहेहाओ । तह तत्तरूई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं नाणं ॥ तथा जं सामान्नग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं नाणं, अवग्रहेहे च सामान्यार्थग्रहणरूपे, अवायधारणे च विशेषग्रहणस्वभावे इति । नन्वष्टाविंशति भेदमानमाभिनिबोधिकज्ञानमुच्यते, यदाह - आभिनिबोहियनाणे अट्ठावीसं हवंति पयडीओ त्ति, इह च व्याख्याने श्रोत्रादिभेदेन षड्भेदतयाऽवायधारणयोर्द्वादशविधं मतिज्ञानं प्राप्तं तथा श्रोत्रादिभेदेन षड्भेदतया - र्थावग्रहईहयोर्व्यञ्जनावग्रहस्य च चतुर्विधतया षोडशविधं चक्षुरादिदर्शनमिति प्राप्तमिति 1. भगवती सू. श. 8, उ. 2, सू. 222 388❖
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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