________________
मूलम्-२. अत्थाणं उग्गहणम्मि उग्गहो, तह वियालणे ईहा ।
ववसायम्मि अवाओ, धरणं पुण धारणं बिंति ॥ ८३ ॥ छाया-२. अर्थानामवग्रहणे, अवग्रहस्तथा विचारणे-ईहा ।
व्यवसायेऽवायः, धरणं पुनर्धारणां ब्रुवते ॥ ८३ ॥ पदार्थ-अत्थाणं-अर्थों के, उग्गहणम्मि-अवग्रहण को, उग्गहो-अवग्रह, तह-तथा, वियालणे-अर्थों के पर्यालोचन को, ईहा-ईहा, ववसायम्मि-अर्थों के निर्णय को, अवाओअपाय, पुण-पुनः, धरणं-अर्थों की अविच्युति स्मृति और वासना रूप को, धारणंधारणा, बिंति-कहते हैं। ___ भावार्थ-अर्थों के अवग्रहण को अवग्रह, तथा अर्थों के पर्यालोचन को ईहा, अर्थों के निणर्यात्मक ज्ञान को अपाय और उपयोग की अविच्युति, स्मृति और वासना रूप को धारणा कहते हैं। मूलम्-३. उग्गह इक्कं समयं, ईहावाया मुहुत्तमद्धं तु ।
कालमसंखं संखं च, धारणा होइ नायव्वा ॥ ८४॥ छाया-३. अवग्रह “एक समयं, ईहावायौ मुहूर्त्तमर्द्धन्तु ।
कालमसंख्येयं संख्येयञ्च, धारणा भवति ज्ञातव्या ॥८४ ॥ पदार्थ-उग्गह-अवग्रह, इक्कं समयं-एक समय परिमाण, ईहावाया-ईहा और अवाय, मुहुत्तमद्धं-अर्द्ध मुहूर्त प्रमाण, तु-विशेषणार्थ, च-और, धारणा-धारणा, कालमसंखं संखं-संख्यात व असंख्यात काल पर्यन्त होती है, नायव्वा-इस प्रकार जानना चाहिए।
भावार्थ-अवग्रह-नैश्चयिक ज्ञान का काल परिमाण एक समय, ईहा और अपायज्ञान का समय अर्द्धमुहूर्त प्रमाण तथा धारणा का काल परिमाण संख्यात व असंख्यात काल पर्यन्त है। इस प्रकार समझना चाहिए। मूलम्-४. पुढं सुणेइ सदं, रूवं पुण पासइ अपुढं तु ।
__गंधं रसं च फासं च, बद्धपुठं वियागरे ॥ ८५ ॥ छाया-४. स्पृष्टं शृणोति शब्दं, रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टन्तु ।।
गन्धं रसं च स्पर्शञ्च, बद्धस्पृष्टञ्च व्यागृणीयात् ॥८५ ॥ पदार्थ-आत्मा, सद-शब्द को, पुट्ठ- श्रोत्रन्द्रिय के द्वारा स्पृष्ट हुए को, सुणेइसुनता है किन्तु-रूवं-रूप को, पुण-फिर, अपुट्ठ-बिना स्पृष्ट हुए ही, पासइ-देखता है, 'तु'-शब्द एवकार अर्थ में आया हुआ है, इससे चक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। गंधं च-गन्ध, रसंच-और रस, फासंच-और स्पर्श को, बद्धपुढें-बद्धस्पृष्ट को जानता है, वियागरे-ऐसा कहना चाहिए।
*386 * -