________________
कुछ घंटों में या दिनों में अंकुर दृष्टिगोचर होता है। बीज में अंकुर होने की तैयारी पहले समय में ही हो जाती है। जो बीज अंकुर के अभिमुख होने वाला है, परन्तु हुआ नहीं। बस इसी तरह अवग्रह भी पहले समय से चालू होता है, उसी अव्यक्त अवस्था को अवग्रह कहते हैं। किन्हीं का अभिमत है कि जो अर्थावग्रह के अभिमुख है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं, जो ईहा के अभिमुख है, वह अर्थावग्रह कहलाता है। वास्तव में देखा जाए तो जो ग्रहण किया हुआ विषय अत्यल्प समय में ईहा के अभिमुख होता है, वह व्यंजनावग्रह कहलाता है। अर्थावग्रह पटुक्रमी होता है और व्यंजनावग्रह मन्दक्रमी। लगते दोनों में ही असंख्यात समय हैं, परन्तु असंख्यात के भी असंख्यात भेद होते हैं। कल्पना करो सौ में से दस को संख्यात और ग्यारह से लेकर 100 तक असंख्यात मान लें, तो पहला हिस्सा भी असंख्यात है और पिछला भाग भी असंख्यात है, दोनों में अन्तर बहुत है। वैसे ही अर्थावग्रह में असंख्यात समय अल्पमात्रा में लगते हैं, जब कि व्यंजनावग्रह में अधिक मात्रा में असंख्यात समय लगते हैं।
किन्हीं की मान्यता है कि बहु, बहुविध इत्यादि छ अर्थावग्रह हैं और अल्प, अल्पविध इत्यादि छ व्यंजनावग्रह हैं। क्या दोनों अवग्रहों की ऐसी परिभाषा उचित है? नहीं, क्योंकि 12 भेद अर्थावग्रह के हैं और 12 ही व्यंजन-अवग्रह से भी सम्बन्धित हैं।
क्या अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा क्रमशः होते हैं या व्यतिक्रम से भी? जो भी ज्ञान होता है, इसी क्रम से होता है, व्यतिक्रम से नहीं। ज्ञान कभी अवग्रह तक ही सीमित रह जाता है, कभी अवग्रह, ईहा तक रह जाता है, कभी अवग्रह, ईहा और अवाय तक होकर रह जाता है और कभी अवग्रह से लेकर धारणा तक पहुंच जाता है, इसी को विकसित ज्ञाम कहते हैं। यदि धारणा शक्ति दृढ़तम हो, तो ज्ञान पूर्णतया विकसित कहलाता है। व्यतिक्रम से ज्ञान का होना नितान्त असंभव है। अवग्रह में आया हुआ विषय प्रयत्न से विकासोन्मुख किया जाता है, स्वत: नहीं। इस विषय में शंका उत्पन्न होती है कि कुछ एक विचारक ईहा को संशयात्मिका मानते हैं, यह कैसे? इसका समाधान है-अवग्रह और ईहा के अन्तराल में संशय हो सकता है। ईहा तो संशयातीत विचारणा का नाम है। संशय अज्ञान रूप होने से अप्रामाणिक है, किन्तु ईहा प्रमाण की कोटि में गर्भित होने से ज्ञान रूप है, क्योंकि विवेक सहित विचारणा ही ईहा है ।। सूत्र 36 ।।
पुनः द्रव्यादि से मतिज्ञान का स्वरूप । मूलम्-तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ।
१. तत्थ दव्वओ णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सव्वाइं दव्वाई जाणइ, न पासइ।
-
*384
-