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कर ही जान लेता है कि इस भूगर्भ में किस धातु की खान है। कुत्ते पदचिन्हों को सूंघकर अपने स्वामी को या चोर को ढूंढ लेते हैं। कीड़ी-चींटी सूंघ कर ही परोक्ष में रहे हुए खाद्य पदार्थ को ढूंढ लेती है। विशेषज्ञ भी सूंघ कर ही असली-नकली वस्तु की पहचान कर लेते हैं। कोई रसीले पदार्थों को चखकर ही उस का मूल्यांकन कर लेते हैं। उस में रहे हुए गुण-दोष को भी जान लेते हैं। प्रज्ञाचक्षु या कोई अन्य व्यक्ति लिखे हुए अक्षरों को स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा पढ़ कर सुना देते हैं। यह कौन व्यक्ति है, वे स्पर्श करते ही पहचान लेते हैं। किसी का नोइन्द्रिय उपयोग तीव्र होता है, ऐसे व्यक्ति की चिन्तन शक्ति बड़ी प्रबल होती है। जो आगे आने वाली घटना है या शुभाशुभ परिणाम है, उसे वह पहले ही जान लेता है। ये ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम के विचित्र परिणाम हैं।
पांच इन्द्रियां और छठा मन, इन के माध्यम से मतिज्ञान उत्पन्न होता है, इन छहों को अर्थावग्रह एवं ईहा, अवाय, धारणा के साथ जोड़ने से 24 भेद बन जाते हैं। चक्षु और मन को छोड़ कर चार इन्द्रियों के साथ व्यंजनावग्रह भी होता है। 24 में चार की संख्या जोड़ने से 28 हो जाते हैं। 28 को बारह भेदों से गुणा करने पर 336 भेद हो जाते हैं।
. प्रकारान्तर से 336 भेद इस तरह हैं-उपर्युक्त छहों का अर्थावग्रह एवं छहों की ईहा, इसी प्रकार अवाय और धारणा के भी 6-6 भेद बनते हैं। कुल मिला कर 24 भेद बनते हैं। 24 को उक्त बारह भेदों से गुणाकार करने पर 288 भेद बनते हैं। व्यंजनावग्रह प्राप्यकारी इन्द्रियों
का ही होता है। चार को उक्त बारह भेदों से गुणा करने से 48 भेद बनते हैं। 288 में 48 की . संख्या जोड़ने से 336 भेद बन जाते हैं। मतिज्ञान के जो 336 भेद दिखलाए हैं, ये सिर्फ स्थूल
दृष्टि से ही समझने चाहिएं, वेसे तो मतिज्ञान के अनन्त भेद होते हैं। __अवग्रह दो प्रकार का होता है-नैश्चयिक और व्यावहारिक। नैश्चयिक अवग्रह एक समय का होता है। और व्यावहारिक असंख्यात समय का। नैश्चयिक अवग्रह होने से ही व्यावहारिक अवग्रह हो सकता है। विषय ग्रहण तो पहले समय में ही हो जाता है, किन्तु अव्यक्त रूप होने से संख्यातीत समयों में ज्ञान होता है। 'अ' के उच्चारण करने में भी असंख्यात समय लग जाते हैं। अनेक अक्षरों का पद और अनेक पदों का वाक्य बनता है। जब एक अक्षर के उच्चारण में भी असंख्यात समय लगते हैं, तब एक शब्द या वाक्य के उच्चारण में असंख्यात समय क्यों न लगें? यदि विषय को पहले समय में ही ग्रहण न किया होता तो दूसरा समय अकिंचित्कर ही होता। वस्त्र फाड़ने के समय जब पहली तार टूटती है, तो दूसरी भी और तीसरी भी टूटेगी, किन्तु जब उसकी पहली ही तार नहीं टूटी, तब दूसरी तार कैसे टूटेगी? बस यही उदाहरण अवग्रह के विषय में समझना चाहिए। पहले समय में नैश्चयिक अवग्रह से ही विषय को ग्रहण कर लिया जाता है। वही आगे चलकर विकसित हो जाता है।
दूसरा उदाहरण-उचित समय में बुवाई करने पर, जब बीज को मिट्टी और पानी का संयोग, हुआ, उसी समय में वह बीज उगने लग जाता है। प्रतिक्षण वह उग रहा है, किन्तु बाहर
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