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भी कहा जाता है। यही अज्ञान है और दुःख का मूल कारण भी । एक स्पष्टोक्ति जैनदर्शन ने और की, वह यह कि जिस ज्ञेय को जान कर भी जीव हेय और उपादेय का विवेक न कर सके, उस ज्ञान को भी अज्ञान की ही कोटि में सम्मिलित किया गया है। जहां विवेक नहीं, वहां सम्यग्दर्शन का अभाव है, वहीं अज्ञान है। सम्यग्दर्शन से ही सद्विवेक की प्राप्ति होत है। हेय और उपादेय, आत्मा और कर्म, बन्ध और मोक्ष के उपायों को भिन्न-भिन्न रूप में सद्बुद्धि की तुला पर तोल कर विवेचनात्मक दृष्टि से समझना - परखना ही विवेक माना गया है। यह विवेक की मसाल ज्ञान के द्वारा ही उज्ज्वल - समुज्ज्वल- परमोज्ज्वल होती चली जाती है। इस प्रकार समुज्ज्वल विवेक की पतवार ही इस जीवन नौका को संसार सागर में सन्तुलित रख सकती है।
विवेक के प्रदीप को कभी धूमिल न होने देने के लिए आचार्यों ने स्वाध्याय को सर्व श्रेष्ठ साधन माना है। स्वाध्याय श्रुत धर्म का ही एक विशिष्ट अंग है, श्रुत धर्म हमारे चारित्र धर्म को जगाता है। चारित्र धर्म से आत्मा की विशुद्धि होती है, आत्मविशुद्धि से कैवल्य की उपलब्धि होती है, कैवल्य से ऐकान्तिक तथा आत्यन्तिक विमुक्ति, विमुक्ति से परमसुख जो मुमुक्षुओं का परमध्येय एवं अन्तिम लक्ष्य प्राप्त होता है।
विघ्नहरण मंगलकरण
किसी भी शुभ कार्य को करने से पूर्व मंगलाचरण करने की पद्धति चली आ रही है, नूतन साहित्य सृजन के समय, संकलन के समय, टीका अनुवाद आदि सभी स्थलों पर रचनाकारों ने प्रारम्भ में मंगलाचरण किया है, यह परम्परा आज तक अविच्छिन्न चली आ रही है। इस परम्परा में अनेक रहस्य निहित हैं, जिनसे कि हम कथंचित् अनभिज्ञ हैं । प्रत्येक शुभ कार्य के पीछे अनेक प्रकार के विघ्नों का होना स्वाभाविक है, इसी कारण अनुभवी रचनाकारों ने अपनी रचना से पूर्व मंगलाचरण किया, क्योंकि मंगल ही अमंगल का विनाश कर सकता है।
श्रेष्ठ कार्य अनेक विघ्नों से परिव्याप्त होते हैं, वे कार्य को सकुशल पूर्ण नहीं होने देते। अतः मंगलोपचार करने के अनन्तर ही उस कार्य को प्रारम्भ करना चाहिए। महानिधि का उद्घाटन मंगलोपचार करने पर ही किया जाता है। क्योंकि वह महानिधि अनेक विघ्नों से व्याप्त होती है। मंगलोपचार करने से आने वाले सभी विघ्नसमूह स्वयं उपशान्त हो जाते हैं, उसी प्रकार महाविद्या भी मंगलोपचार करने से निर्विघ्नतापूर्वक सिद्ध हो जाती है। अतः शिष्टजनों को प्रत्येक शुभकार्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण करना चाहिए, ताकि विघ्नों का समूह स्वयं उपशान्त हो जाए ।
शास्त्र के आदि में, मध्य में और अन्त में मंगलाचरण किया जाता है। शास्त्र के आदि में किया हुआ मंगल निर्विघ्नता से पारगमन के लिए सहयोगी होता है । उसकी स्थिरता के
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