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________________ श्री नन्दीसूत्रम् - दिग्दर्शन तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानम् 44 'अज्ञान का पूर्ण अभाव ही वस्तुतः ज्ञान है। " क्षण-क्षण क्षीयमान एवं प्रतिपल परिवर्तित होने वाले इस संसार का प्रत्येक प्राणी दु:ख और अशांति की भीषण ज्वाला में पड़ा छट-पटा रहा है। इस ज्वाला से त्राण - परित्राण पाने के लिए ही उसकी किसी न किसी रूप में इधर-उधर भाग-दौड़ चलती ही रहती है । परन्तु अजस्र सुख की अनन्तधारा से वह दूर, प्रतिपल दूर होता चला जाता है। इसका मूल कारण खोजने पर पता चलता है कि मानव का अपना अज्ञान ही उसे अनन्त - शान्ति परमसुख तथा विमुक्ति के सोपान पर कदम रखने से रोके हुए है। उसका अपना अज्ञान ही उसे संसार चक्र में अटकाने - भटकाने वाला है। जैन दर्शन ऐसी किसी भी अज्ञात या ज्ञात शक्ति को स्वीकार नहीं करता जो कि मनुष्य को उसकी चोटी पकड़े इधर-उधर भटकाती फिरे। उसने समस्त बनाव- 1 व - बिगाड़ की सत्ता मुनष्य के ही हाथ में सौंप दी है। वह चाहे तो ऊपर उठ सकता है और वह चाहे तो नीचे भी गिर सकता है। मनुष्य के अन्त:करण में जब अज्ञान की अन्धकारमयी भीषण - भीषण आंधी चलती है तो वह भ्रान्त हो अपनी ठीक दिशा एवं आत्मपथ से भटक जाता है । परन्तु ज्यों ही ज्ञानालोक की अनन्त किरणें उसकी आत्मा में प्रस्फुटित होती हैं। तो उसे निजस्वरूप का भान - ज्ञान-परिज्ञान हो उठता है। जो उसे परपरिणति से हटाकर आत्म-रमण के पावन - पवित्र पथ पर आगे, निरन्तर आगे ही बढ़ते रहने की ओर इंगित करता रहता है, जहाँ अनन्त शान्ति का अक्षय भण्डार विद्यमान है। जब सच्चे सुख की परिभाषा का प्रश्न आया तो उसके लिए जैनदर्शनकारों ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि अज्ञान की निवृत्ति एवं आत्मा में विद्यमान परमानन्द या निजानन्द की अनुभूति ही सच्चे सुख की श्रेणी में है। श्रमण भगवान महावीर ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा है कि आत्मा के अन्दर ही अनन्त ज्ञान की अजस्त्र धारा प्रवहमान है। आवश्यकता है केवल उसके ऊपर से अज्ञान एवं मोह के शिलाखण्ड को हटाने की । फिर वह अनन्त सुख की धारा, वह अनन्त शान्ति का लहराता हुआ सागर तुम्हारे अन्दर ही ठाठें मारता हुआ नजर आएगा । ज्ञान क्या है? जब इस शंका के समाधान के लिए हम आचार्यों की चिन्तनपूर्ण वाणी की शरण में पहुँचते हैं या स्वयं के प्रौढ - प्रखर आत्म-चिन्तन की गहराइयों में डुबकी लगाते हैं, तो यही उत्तर सामने आता है कि सुख और दुःख के हेतुओं से अपने आप को परिचित करना ही ज्ञान है। ज्ञान आत्मा का निजगुण है, निजगुण प्राप्ति से बढ़कर अन्य सुख की कल्पना करना ही कल्पना है। जैन दर्शनकारों ने हेय, उपादेय आदि हेतुओं को अहेतु और अहेतुओं को हेतु मानना - समझना ही अज्ञान कहा है। जिसे जैन दर्शन की भाषा में मिथ्यात्व ❖28❖
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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