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________________ अतः सिद्ध हुआ कि शब्द स्पर्श वाला है। मेघ गर्जन आदि प्रबल शब्द से जन्म-जात बालक के कान के पर्दे फट जाते हैं। यदि शब्द स्पर्श वाला न होता तो वह किसी के कानों के पर्दों की घात कैसे कर सकता है? सारांश यह है कि शब्द पुद्गल की पर्याय है । सूत्रकार ने व्यञ्जनावग्रह के चार भेद किए हैं, चक्षु और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता ।। सूत्र 29 ।। मूलम् - - से किं तं अत्थुग्गहे ? अत्थुग्गहे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १. सोइंदिय - अत्युग्गहे, २. चक्खिदिय - अत्युग्गहे, ३. घाणिंदिय- अत्युग्गहे, ४. जिब्भिदिय - अत्युग्गहे, ५. फासिंदिय - अत्थुग्गहे, ६. नोइंदिय - अत्युग्गहे ॥ सूत्र ३०॥ छाया-अथ कः सोऽर्थावग्रहः ? अर्थावग्रहः षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - १. श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः, २. चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः, ३. घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः, ४. जिह्वेन्द्रियार्थावग्रहः, ५. स्पर्शेन्द्रियार्थावग्रहः, ६. नोइन्द्रियार्थावग्रहः ॥ सूत्र ३० ॥ -गुरु भावार्थ- से शिष्य ने फिर पूछा- भगवन् ! वह अर्थावग्रह कितने प्रकार का है? गुरुजी बोले- बह छ प्रकार से वर्णित है, यथा- १. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, २. चक्षुरिन्द्रियअर्थावग्रह, ३. घ्राणेन्द्रिय- अर्थावग्रह, ४. जिह्वेन्द्रिय- अर्थावग्रह, ५. स्पशेन्द्रिय- अर्थावग्रह, ६. नोइन्द्रिय-अर्थावग्रहं ।। सूत्र ३० ॥ - टीका-इस सूत्र में अर्थावग्रह के 6 भेदों का उल्लेख किया गया है। जो सामान्य मात्र रूपादि अर्थों का ग्रहण होता है, उसी को अर्थावग्रह कहते हैं, जैसे छोटी चिंगारी का सत् प्रयत्न से प्रकाशपुञ्ज बनाया जा सकता है तथा छोटे चित्र से बड़ा चित्र बनाया जा सकता है। वैसे ही सामान्यावबोध होने पर विचार-विमर्श, चिन्तन-मनन, निदिध्यासन, अनुप्रेक्षा से उस सामान्यावबोध का विराट् रूप बनाया जा सकता है । जब अवग्रह ही नहीं हुआ, तो हा का प्रवेश कैसे हो सकता है? जो अर्थ की पहली धूमिल सी झलक अनुभव होती है, वही अर्थावग्रह है। 'नो इंदिय अत्थुग्गह' - जो सूत्रकार ने यह पद दिया है, इसका अर्थ मन है। मन भी दो प्रकार का होता है- द्रव्य रूप और भाव रूप। मन:पर्याप्ति नाम कर्मोदय से जीव में वह शक्ति पैदा होती है, जिसके द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके द्रव्य मन की रचना की जाती है, जैसे योग्य आहार आदि से देह पुष्ट होता है, तभी वह कार्य करने में समर्थ होता है, वैसे ही जब मन से काम लिया जाता है, तब वह मनीवर्गणा के नए-नए पुद्गलों को ग्रहण करता है, बिना ग्रहण किए, वह कार्य करने में समर्थ नहीं होता । अतः उसे द्रव्य मन कहते हैं। इसी प्रकार चूर्णिकार जी भी लिखते हैं —मणपज्जत्तिनामकम्मोदयओ तज्जोगे मणोदव्वे घेत्तुं मणत्तणेण परिणामिया दव्वा 361
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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