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यद्यपि चोक्तं-चाण्डालस्पर्शदोषः प्राप्नोति-इति, तदपि चेतनाबिकलपुरुषभाषितमिवासमीचीनं, स्पर्श-अस्पर्शव्यवस्थाया लोके काल्पनिकत्वात्, तथाहि न स्पर्शव्यवस्था लोके पारमार्थिकी, तथाहि यामेव भुवमग्रे चण्डालः स्पृशन् प्रयाति, तामेव पृष्ठतः श्रोत्रियोऽपि, तथा यामेव नावमारोहति स्म चाण्डालस्तामेवारोहति श्रोत्रियोऽपि, तथा स एव मारुतश्चाण्डालमपि स्पृष्ट्वा श्रोत्रियमपि स्पृशति, न च तत्र लोके स्पर्शास्पर्शदोषव्यवस्था। तथा शब्दपुद्गलस्पर्शेऽपि न भवतीति न कश्चिद्दोषः अपि च यथा केतकीदलनिचयं शतपत्रादिपुष्पनिचयं वा शिरसि निबध्य वपुषि वा मृगमदचन्दनाधवलेपनमारचय्य विपणिवीथ्यामागत्य चाण्डालोऽवतिष्ठते तदा तद्गतकेतकीदलादिगन्धपुद्गलाः श्रोत्रियादिनासिकास्वपि प्रविशन्ति, ततस्तत्रापि चाण्डालस्पर्शदोषः प्राप्नोतीति तद् दोषभयान्नासिकेन्द्रयमप्राप्यकारि प्रतिपत्तव्यं, न चैतद्भवतोऽप्यागमे प्रतिपाद्यते, ततो बालिशजल्पितमेतदिति कृतं प्रसंगेन'।
वृत्तिकार ने स्पर्श-अस्पर्श व्यवस्था और शब्द को पुद्गल जन्य सिद्ध करके बड़े ही मनोरञ्जक भाव प्रकट किए हैं।
कुछ एक दर्शनकार शब्द को आकाश का गुण मानते हैं। उनका यह कथन युक्तिसंगत न होने से अप्रामाणिक माना जाता है, क्योंकि शब्द ऐन्द्रियक है और आकाश अतीन्द्रिय। नियम यह है कि यदि द्रव्य अतीन्द्रिय है तो उसके गुण भी अतीन्द्रिय ही होंगे, जैसे कि आत्मा अतीन्द्रिय है, तो उसके चेतनादि गुण भी अतीन्द्रिय हैं। यदि द्रव्य ऐन्द्रियक हो, तो उसके गुण भी नियमेन ऐन्द्रियक ही होते हैं, जैसे-पृथ्वी, अप्, तेज और वायु आदि ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष हैं, वैसे ही उनके गुण भी क्रमशः गन्ध, शीत, ऊष्ण, स्पर्श आदि भी ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष हैं, वैसे ही उनके गुण भी क्रमशः गन्ध, शीत, उष्ण, स्पर्श आदि भी ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष हैं। इस पर वृत्तिकार मलयगिरि जी निम्न प्रकार से लिखते हैं
“आकाशगुणतायां शब्दस्यामूर्त्तत्वप्रसक्तेः, ये हि यद् गुणः, स तत्समानधर्मा, यथा ज्ञानमात्मनः, तथाहि-अमूर्त आत्मा, ततस्तद्गुणो ज्ञानमप्यमूर्तमेव, एवं शब्दोऽपि यद्याकाशगुणस्ताकाशस्यामूर्तत्वाच्छब्दस्यापि तद्गुणत्वेनामूर्तता भवेत्।" __इसका सारांश यह है कि आत्मा के समान अमूर्तिक पदार्थ आकाश को माना गया है। जब गुणी अमूर्तिक हो, तब उसका गुण मूर्तिक कैसे हो सकता है? शब्द ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष मूर्तिक एव स्पर्श वाला होने से, उसे पुद्गल की पर्याय मानना ही युक्तियुक्त है। जैसे कि कहा भी है
“स्पर्शवन्तः शब्दाः, तत्सम्पर्कादुपघातदर्शनाल्लोष्टवत्, न चायमसिद्धो हेतुः, यतो दृश्यते सद्योजातबालकानां कर्णदेशाभ्यीकृतगाढास्फालितझल्लरीझात्कार-श्रवणतः श्रवणस्फोटो, न चेत्थमुपघातकृत्त्वमस्पर्शवत्त्वे सम्भवति।" 1. शब्दगुणकमाकाशम्, तर्कसंग्रहः।
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