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सोइंदिअवंजणुग्गहे, २. घाणिंदियवंजणुग्गहे, ३. जिब्भिंदियवंजणुग्गहे, ४. फासिंदियबंजणुग्गहे, से तं वंजणुग्गहे ॥ सूत्र २९॥
छाया-अथ कः स व्यञ्जनावग्रहः? व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-१. श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, २. घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, ३. जिह्वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, ४. स्पर्शेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः, स एष व्यञ्जनावग्रहः ॥ सूत्र २९ ॥ __ पदार्थ-से किं तं वंजणुग्गहे?-वह व्यञ्जनावग्रह कितने प्रकार का है?, वंजणुग्गहेव्यञ्जनावग्रह, चउव्विहे-चार प्रकार का, पण्णत्ते-कहा गया है, तं जहा-यथा, सोइंदिअवंजणुग्गहे-श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह, घाणिंदियवंजणुग्गहे-घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह, जिभिंदियवंजणुग्गहे-जिह्वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह, फासिंदियवंजणुग्गहे- स्पर्शेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह, से तं-वह इस प्रकार, वंजणुग्गहे-व्यञ्जनावग्रह कहा गया है।,
भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया-गुरुदेव ! वह व्यञ्जन-अवग्रह कितने प्रकार का है?
गुरु जी उत्तर में बोले-वह चार प्रकार से प्रतिपादन किया है, जैसे-१. श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह, २. घ्राणेन्द्रिय-व्यञ्जनावग्रह, ३.जिह्वेन्द्रिय-व्यञ्जनावग्रह, ४. स्पर्शेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह। यह व्यञ्जन अवग्रह हुआ ॥ सूत्र २९ ॥
टीका-इस सूत्र में व्यंजनावग्रह का निरूपण किया गया है। चक्षु और मन के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। श्रोत्रेन्द्रिय अपने विषय को केवल स्पृष्ट होने मात्र से ही ग्रहण करती है। स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियां अपने विषय को बद्ध स्पृष्ट होने पर ग्रहण करती हैं। जब तक रस का रसनेन्द्रिय से सम्बन्ध नहीं हो जाता, तब तक रसनेन्द्रिय का अवग्रह नहीं हो सकता। इसी प्रकार अन्य-अन्य इन्द्रियों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। किन्तु चक्षु और मन ये अपने विषय को न स्पृष्ट से और न बद्ध-स्पृष्ट से अपितु दूर से ही ग्रहण करते हैं। नेत्र में डाले हुए अंजन को या पड़े हुए रज-कण को नेत्र स्वयं नहीं देख सकते, इसी प्रकार मन भी शरीर के अन्दर रहे हुए मांस, अस्थि, रक्त आदि को विषय नहीं कर सकता, किन्तु वह दूर रही हुई वस्तु का चिन्तन स्वस्थान में ही कर लेता है। अपने विषय को वह दूर से ही ग्रहण कर लेता है। यह विशेषता चक्षु और मन में ही है, अन्य इन्द्रियों में नहीं है। इसी कारण चक्षु और मन को अप्राप्यकारी कहा है, क्योंकि इन पर विषयकृत अनुग्रहउपघात नहीं होता, जब कि चारों पर होता है। ___बौद्ध श्रोत्रेन्द्रिय को भी अप्राप्यकारी मानते हैं, किन्तु उनकी यह मान्यता युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय विषयकृत अनुग्रह-उपघात से प्रभावित होती है, घ्राणेन्द्रियवत्। अत: यह इन्द्रिय अप्राप्यकारी नहीं है। वृत्तिकार ने इस विषय पर स्पर्श-अस्पर्श का उदाहरण दिया है, जो कि बड़ा ही मनोरंजक है, उसका भाव यह है कि चाण्डाल और श्रोत्रिय ब्राह्मण
का परस्पर शब्द आदि का सम्बन्ध होने पर स्पर्श-अस्पर्श व्यवस्था कहां रह सकती है? जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए वृत्ति का पाठ ज्यों का त्यों यहां उद्धृत किया जाता है
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