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भावार्थ-शिष्य ने पूछा-देव ! अवग्रह कितने प्रकार का है?
गुरुजी बोले-वह दो प्रकार का प्रतिपादन किया है, जैसे-१. अर्थावग्रह और २. व्यंजनावग्रह ॥ सूत्र २८ ॥
टीका-इस सूत्र में अवग्रह और उसके भेदों का निरूपण किया गया है। अवग्रह दो प्रकार का होता है, एक अर्थावग्रह, दूसरा व्यंजनावग्रह। अर्थ कहते हैं-वस्तु को। वस्तु और द्रव्य ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। द्रव्य में सामान्य विशेष दोनों धर्म रहते हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इनके द्वारा सम्पूर्ण द्रव्य का ग्रहण नहीं होता, प्रायः पर्यायों का ही ग्रहण होता है। पर्याय से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का ग्रहण स्वतः हो जाता है। द्रव्य के एक अंश को पर्याय कहते हैं। जब तक आत्मा कर्मों से आवृत है, अशक्त है, तब तक उसे किसी के माध्यम से ज्ञान हो सकता है। शरीर में रहते हुए वह पांच इन्द्रियों एवं मन के द्वारा बाह्यवस्तु का ज्ञान प्राप्त करता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के अंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्येन्द्रियां प्राप्त होती हैं। ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से भावेंन्द्रियां प्राप्त होती हैं।
द्रव्येन्द्रियों के बिना भावेन्द्रियां अकिंचित्कर हैं, एवं भावेन्द्रियों के बिना द्रव्येन्द्रियां। अत: जिस-जिस जीव को जितनी-जितनी इन्द्रियां मिली हैं, वह उतना-उतना उन इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है। एकेन्द्रिय जीव केवल स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह करता है। अर्थावग्रह पटुक्रमी होता है और व्यंजनावग्रह मन्दक्रमी। अर्थावग्रह अभ्यस्तावस्था एवं विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है और व्यंजनावग्रह अनभ्यस्तावस्था तथा क्षयोपशम की मन्दता में होता है। अर्थावग्रह के द्वारा अत्यल्प समय में ही वस्तु की पर्याय का ग्रहण हो जाता है, किन्तु व्यंजनावग्रह में अत्यल्प समय में नहीं, अल्प समयों में पर्याय का "यह कुछ है" ज्ञान होता है। उपकरणेन्द्रिय और वस्तु के संयोग से व्यंजनावग्रह होता है। चक्षु और मन इन का अर्थावग्रह ही होता है, व्यंजनावग्रह नहीं। शेष चार इन्द्रियां वस्त की पर्याय को अर्थावग्रह से भी ग्रहण करती हैं और व्यंजनावग्रह से भी। जैसे सुषुप्ति अवस्था में तथा मूर्छितावस्था में उपकरणेन्द्रिय और बाह्य वस्तु का सम्बन्ध होने से अव्यक्त मात्रा में ज्ञान होता है, यद्यपि उसका संवेदन प्रकट रूप में प्रतीत नहीं होता, तदपि अव्यक्तरूप होने से कोई दोषापत्ति नहीं है, क्योंकि व्यंजनावग्रह के पश्चात् वह ज्ञानमात्रा विकसित होती हुई, ईहा आदि रूप में परिणत हो जाती है, जैसे सर्षप में तेल मात्रा होने से ही सर्षप के समूह को पीडने से तेलधारा निकल पड़ती है, न तु सिक्ता आदि के समूह से। अतः सिद्ध हुआ व्यंजनावग्रह भी ज्ञानरूप है। सूत्रकार ने पहले अर्थावग्रह तदनु व्यंजनावग्रह कहा है, इस का कारण यही हो सकता है कि अर्थावग्रह सर्वेन्द्रिय और मनोभावी है, तद्वत् व्यंजनावग्रह नहीं। इनकी विशेष व्याख्या यथास्थान आगे की जाएगी ।। सूत्र 28 ।।। मूलम्-से किं तं वंजणुग्गहे ? वंजणुग्गहे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-१.
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