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राजा चेड़ा का सन्देश कूणिक को जाकर सुनाया, जिसे सुन कर वह गुस्से में आ गया और दूत से कहा-राज्य में जो श्रेष्ठ वस्तुएं पैदा होती वे राजा की होती हैं। गन्धहस्ती और बंकचूड हार मेरे राज्य में पैदा हुए हैं, अतः मैं उन का स्वामी हूं और उन का उपभोग करना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः तुम जाओ और यह आज्ञा चेड़ा राजा से कह दो कि वह विहल्लकुमार और हाथी तथा हार को लौटा देवें अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाएं। __ दूत ने कूणिक का सन्देश चेड़ा राजा से कह सुनाया। चेड़ा राजा ने उत्तर दिया-यदि कूणिक अन्याय पूर्वक युद्ध करना चाहता है, तो न्याय के लिए मैं भी युद्ध को तैयार हूं। दूत ने चेड़ा राजा का सन्देश जाकर कूणिक को कह सुनाया। तत्पश्चात् राजा कुणिक अपने भाइयों और अपनी सेना को लेकर विशाला नगरी पर चढ़ाई करने के लिए चल दिया। उधर चेड़ा राजा ने अपने साथी राजाओं को बुला कर सब स्थिति को स्पष्ट किया। वे मित्र राजा भी चेड़ा राजा की न्यायसंगत बात सुन कर शरणागत की रक्षा के लिए और राजा चेड़ा की सहायता के लिए तैयार हो गए। दोनों पक्ष के राजा अपनी-अपनी सेना को लेकर यद्ध के मैदान में डट गए और घोर संग्राम हुआ, जिसके परिणामस्वरूप लाखों व्यक्तियों का निर्मम वध हुआ। राजा चेड़ा पराजित होकर विशाला नगरी में घुस गए और नगर के चारों ओर के द्वार बन्द करवा दिए। राजा कूणिक ने नगर के कोट को तोड़ने की अत्यन्त कोशिश की। परन्तु निष्फल। तभी आकाशवाणी हुई-"यदि कूलबालुक साधु चारित्र से पतित होकर मागधिका वेश्या से गमन करे तो कूणिक राजा विशाला का कोट गिरा कर नगरी पर अधिकार कर सकता है।" कूणिक ने उसी समय राज़गृह से मागधिका वेश्या को बुलाया और उसे सारी स्थिति समझा दी। वेश्या ने कूणिक की आज्ञा स्वीकार करके कूलबालुक को लाने का वचन दिया।
किसी आचार्य का एक शिष्य था। आचार्य जब भी कोई हित शिक्षा उसे देते तो वह उसका विपरीत अर्थ निकाल कर उलटा गुरु पर क्रोध करता । एक बार आचार्य के साथ वह साधु किसी पहाड़ी प्रदेश से जा रहा था, तो आचार्य पर द्वेष-बुद्धि से उन्हें मार देने के लिए पीछे से एक पत्थर लढका दिया। आचार्य ने जब पत्थर आते देखा तो शीघ्रता से रास्ता बचा कर निकल गए। पत्थर नीचे जा गिरा। आचार्य, साधु के इस घृणित कृत्य को देख कर कोप में आकर कहने लगे-ओ दुष्ट ! तेरी इतनी धृष्टता ! इस प्रकार का जघन्य-नीच कार्य भी तू कर सकता है ! अच्छा तेरा पतन भी किसी स्त्री के द्वारा ही होगा। वह शिष्य सदैव गुरु की आज्ञा विरुद्ध कार्य करता था। अतः इस वचन को भी झूठा सिद्ध करने के लिए किसी निर्जन प्रदेश में चला गया, जहां किसी स्त्री का तो क्या, पुरुष का भी आवागमन कम ही होता था। वहां जाकर एक नदी के किनारे वह घोर तप करने लगा। एक बार वर्षा का पानी नदी में भरपूर आया। परन्तु उसके घोर तप के कारण दूसरी ओर बहने लगा। इसी कारण उसका नाम कूलबालुक प्रसिद्ध हो गया। वह भिक्षा के लिए गांवों में नहीं जाता, अपितु जब कभी उधर से कोई यात्री गुजरता, उस से जो कुछ मिलता उसी पर निर्वाह करता।
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