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मागधिका वेश्या ने कपट श्राविका का ढोंग रचकर साधु-सन्तों की सेवा में रह कर उनसे कूलबालक का पता लगा लिया। वेश्या नदी के समीप जाकर रहने लगी और धीरेधीरे कूलबालुक की सेवा - भक्ति करने लगी । वेश्या की भक्ति और आग्रह को देख वह साधु उसके घर पर गोचरी के लिये गया । वेश्या ने विरेचक ओषधि-मिश्रित भिक्षा उसे दी, जिसे खाने से कूलबालुक को अतिसार हो गया । वेश्या उसकी सेवा शुश्रूषा करने लगी। वेश्या स्पर्श से कूलबालक का मन विचलित हो गया और वेश्या में आसक्त हो गया। अपने अनुकूल जान कर वेश्या उसे कूणिक के पास ले गई।
राजा कूणिक ने कूलबालुक से पूछा - विशाला नगरी का कोट कैसे तोड़ा जा सकता है तथा नगरी किस प्रकार विजित की जा सकती है? कूलबालुक ने कूणिक को उसका उपाय बताया और कहा-मैं नगरी में जाता हूं, जब मैं आपको श्वेत वस्त्र से संकेत दूं, तब आप सेना सहित पीछे हट जाना । कुछ निश्चित संकेत समझाकर और नैमित्तिक का वेष धारण करके वह नगर में चला गया।
नगर निवासी नैमित्तिक समझ कर उससे पूछने लगे - दैवज्ञ ! कूणिक हमारी नगरी के चारों ओर घेरा डाल कर पड़ा हुआ है, यह संकट कब तक समाप्त होगा? कूलबालुक ने अभ्यास द्वारा नगर वालों को बताया कि तुम्हारे नगर में अमुक स्थान पर जो स्तूप खड़ा है जब तक यह रहेगा, संकट बना ही रहेगा। आप यदि इसे उखाड़ डालें, गिरा दें तो शान्ति अवश्यंभावी है। नैमित्तिक के कथन पर विश्वास करके वे स्तूप को भेदन करने लगे और . उधर उसने सफेद वस्त्र से संकेत कर दिया। संकेत पाकर राजा कूणिक अपनी सेना सहित • पीछे हटने लगा। लोगों ने सेना को पीछे हटता देखा तो उन्हें नैमित्तिक की बात पर विश्वास आ गया और स्तूप को उखाड़ कर गिरा दिया, जिससे नगरी का प्रभाव क्षीण हो गया । कूणिक कूलबालुक के कथनानुसार नगरी पर वापिस लौट कर चढ़ाई की और कोट को गिरा कर रक्षा प्रबन्ध को नष्ट करके नगरी पर अधिकार कर लिया।
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नगरी के अन्दर स्थित स्तूप को भेदन कर गिरा कर विजय प्राप्त की जा सकती है यह कूलबालुक और कूलबालक को अपने वश में करना यह वेश्या की पारिणामिकी बुद्धि थी ।
(ऊपर लिखी गयी सभी आख्यायिकाएं नन्दी सूत्र की वृत्ति तथा 'सेठिया जैन ग्रन्थमाला' सिद्धांत बोल संग्रह के आधार पर लिखी गई हैं। 1 - सम्पादक )
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान
मूलम् - से किं तं सुयनिस्सियं ? सुयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा - १. उग्गहे, २. ईहा, ३. अवाओ, ४. धारणा ॥ सूत्र २७ ॥
छाया-अथ किं तत् श्रुतनिश्रितम् ? श्रुतनिश्रितं चतुविंधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा१. अवग्रहः, २. ईहा, ३. अवायः, ४. धारणा ॥ सूत्र २७ ॥
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