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________________ अंगूठे के रक्त का आस्वाद सर्प को विलक्षण ही प्रतीत हुआ। वह सोचने लगा-"यह कोई सामान्य नहीं बल्कि अलौकिक पुरुष है।" यह विचारते हुए सर्प का क्रोध शान्त हो गया। वह शान्त और कारुणिक दृष्टि से भगवान के सौम्य मुखमण्डल को देखने लगा। उपदेश का यह समय देख भगवान ने फरमाया-"चण्डकौशिक ! बोध को प्राप्त हो, अपने पूर्वभव को स्मरण करो ! हे चण्डकौशिक ! तुम ने पूर्वभव में दीक्षा ली थी। तुम एक साधु थे। पारणे के दिन गोचरी से लौटते समय तुम्हारे पैर से दब कर एक मेंढक मर गया, उस समय तुम्हारे शिष्य ने आलोचना करने के लिए कहा, किन्तु तुमने ध्यान न दिया। 'गुरु महाराज तपस्वी हैं, सांयकाल आलोचना कर लेंगे' ऐसा विचार कर शिष्य मौन रहा। सांय काल प्रतिक्रमण के समय भी गुरु ने उस पाप की आलोचना नहीं की। संभव है गुरु महाराज आलोचना करना भूल गये हों' इस सरल बुद्धि से तुम्हें शिष्य ने याद कराया। परन्तु शिष्य के वचन सुनते ही तुम्हें क्रोध आ गया। क्रोध से उत्तप्त होकर तुम शिष्य को मारने के लिये उसकी ओर दौड़े, किन्तु बीच में स्थित स्तम्भ से जोर से टकराये, जिससे तुम्हारी मृत्यु हो गई। "हे चण्डकौशिक ! तुम वही हो। क्रोध में मृत्यु होने से तुम्हें यह योनि प्राप्त हुई। अब पुनः क्रोध के वशीभूत हो कर तुम अपना जन्म क्यों बिगाड़ते हो। समझो ! समझो !! प्रतिबोध को प्राप्त करो।" भगवान् के उपदेश से उसी समय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से चण्डकौशिक को जातिस्मरण ज्ञान पैदा हो गया। अपने पूर्व भव को देखा और भगवान को पहचान कर विनय पूर्वक वन्दना की तथा अपने अपराध के लिये पश्चात्ताप करने लगा। ____ 'जिस क्रोध से सर्प की योनि मिली, उस क्रोध पर विजय प्राप्त करने के लिए तथा इस दृष्टि से अन्य किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचे' इस भाव से भगवान के समक्ष ही सर्प ने अनशन कर लिया तथा अपना मुंह बिल में डाल कर शेष शरीर बाहर रहने दिया। थोड़ी देर के बाद ग्वाले वहां आये और भगवान को कुशल पाया तो उन के आश्चर्य की सीमा न रही। सर्प को इस प्रकार देख, वे उस पर लकड़ी तथा पत्थर आदि से प्रहार करने लगे। चण्डकौशिक इस कष्ट को समभाव से सहन करता रहा। यह देख कर ग्वालों ने लोगों से जा कर सारी बात कही। बहुत से स्त्री-पुरुष उसे देखने के लिए आने लगे। कई ग्वालिनें दूध-घी से उसकी पूजा-प्रतिष्ठा करने लगीं। घृत आदि की सुगन्धि से सर्प पर बहुत-सी चींटियां चढ़ गयीं और उसके शरीर को काट-काट कर छलनी बना दिया। इन सभी कष्टों को सर्प अपने पूर्व कृत कर्मों का फल मान कर समभावपूर्वक सहता रहा। विचारता रहा 'कि ये कष्ट मेरे पापों की तुलना में कुछ भी नहीं। चींटियां मेरे भारी शरीर के नीचे दबकर मर न जाएं' ऐसा विचार कर उसने अपने शरीर को तनिक भी नहीं हिलाया और समभाव से वेदना को सहन कर पन्द्रह दिन का अनशन पूरा कर सहस्रार नामक आठवें देवलोक में उत्पन्न हुआ। भगवान महावीर के अलौकिक रक्त का आस्वादन कर चण्डकौशिक ने बोध को प्राप्त कर अपना जन्म सफल किया। यह उसकी पारिणामिकी बुद्धि थी। * 352*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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