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________________ वृद्ध एकत्रित होकर विचारने लगे-"राजा के सिर पर रानी के अतिरिक्त अन्य कौन व्यक्ति है जो पैर का प्रमर कर सके?" रानी तो विशेष सम्मान करने योग्य होती है। यह सोचकर राजा के पास उपस्थित हुए और कहा-"महाराज ! जो व्यक्ति आप के सिर पर प्रहार करे, उसका विशेष आदर करके वस्त्राभूषणों से उसकी सेवा करनी चाहिए।" वृद्धों का उत्तर सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हीं को अपनी सेवा में रखा तथा प्रत्येक कार्य में उन्हीं की सहायता लेता। इससे राजा हर स्थान पर सफलता प्राप्त करता था। यह राजा और वृद्धों की पारिणामिकी बुद्धि है। १७. आंवला-किसी कुम्हार ने एक व्यक्ति को कृत्रिम आंवला दिया। वह रंग-रूप, आकार-प्रकार और वजन में आंवले के समान ही था। आंवला लेकर पुरुष विचारने लगा-"यह आकृति आदि में तो आंवले जैसा ही है, किन्तु यह कठोर है और यह ऋतु भी आंवलों की नहीं है।" इस प्रकार उसने निर्णय किया कि यह असली नहीं, अपितु बनावटी आंवला है। यह उस पुरुष की पारिणामिकी बुद्धि है। १८. मणि-जंगल में एक सर्प रहता था। उसके मस्तक पर मणि थी। वह रात्रि को वृक्षों पर चढ़कर पक्षियों के बच्चों को खाता था। एक दिन वह अपने भारी शरीर को न सम्भाल सकने से नीचे गिर पडा और सिर की मणि वृक्ष पर ही रह गयी। वृक्ष के नीचे एक कुआं था। मणि की प्रभा से उसका पानी लाल दिखायी देने लगा। प्रात:काल कुएं के पास खेलते हुए एक बालक ने यह दृश्य देखा। वह दौड़ा हुआ घर पर आया और अपने वृद्ध पिता से सारी बात कह सुनाई। बालक की बात सुन कर वह वृद्ध वृक्ष के पास आया और कुएं की अच्छी प्रकार से देखभाल कर ज्ञात किया कि वृक्ष पर मणि है। मणि को लेकर वह घर चला गया। यह वृद्ध की पारिणामिकी बुद्धि थी। १९. सर्प-दीक्षा लेकर भगवान महावीर ने प्रथम वर्षावास अस्थिक ग्राम में बिताया। चतुर्मासानन्तर भगवान विहार कर श्वेताम्बिका नगरी की ओर पधारने लगे। कुछ दूर जाने पर ग्वालों ने भगवान से प्रार्थना की-"भगवन् ! श्वेताम्बिका जाने के लिए यद्यपि यह मार्ग छोटा है, किन्तु मार्ग में एक दृष्टिविष सर्प रहता है, हो सकता है कि आप को मार्ग में उपसर्ग आये।" बाल ग्वालों की बात सुन भगवान ने विचारा-'वह सर्प तो बोध पाने योग्य है।' यह सोचकर उसी मार्ग से चले गये और सर्प के बिल के पास पहुंच गये तथा बिल के समीप ही कायोत्सर्ग में स्थिर हो गये। थोड़ी ही देर में सर्प बांबी से बाहिर निकला। उसने देखा कि वहां पर एक व्यक्ति मौन धारण किए खड़ा है। वह विचारने लगा-"यह कौन है जो मेरे द्वार पर इस तरह निर्भीक होकर खड़ा है?" यह सोच कर उसने अपनी विषाक्त दृष्टि भगवान पर डाली। किन्तु भगवान का इससे कुछ भी न बिगड़ा। अपने प्रयास में असफल होकर सर्प का क्रोध उग्र रूप धारण कर गया। उसने सूर्य की ओर देख कर पुनः विषैली दृष्टि भगवान पर फैंकी, किन्तु वह भी असफल रही। तब वह भगवान् के पास रोष से भरा हुआ आया और उनके चरण के अंगूठे को डस लिया। इस पर भी भगवान अपने ध्यान में तल्लीन रहे। *351*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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