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कि क्षणभर के लिए भी उसका वियोग सहन नहीं कर सकता था। इसी कारण लोग उसे सुन्दरीनन्द के नाम से पुकारते थे।
सुन्दरीनन्द का एक छोटा भाई था, जिसने दीक्षा धारण कर ली थी। जब मुनि को यह ज्ञात हुआ कि बड़ा भाई सुन्दरी में अत्यन्त आसक्त है, तो उसे प्रतिबोध देने के लिए नासिकपुर में आए। वहां आकर मुनि नगर के बाहर उद्यान में ठहर गए। नगर की जनता धर्मोपदेश सुनने के लिये आई, किन्तु सुन्दरीनन्द नहीं गया। धर्मोपदेश के पश्चात् मुनि गोचरी के लिये नगर में पधारे। घूमते हुए अनुक्रम से वे अपने भाई के घर पर पहुंच गये। अपने भाई की स्थिति को देखकर मुनि को बहुत विचार हुआ और सोचने लगे कि यह स्त्री में अति लुब्ध है। अतः जब तक इसे इससे अधिक प्रलोभन न दिया जायेगा, तब तक इसका अनुराग नहीं हट सकता। यह विचार कर मुनि ने वैक्रिय लब्धि द्वारा एक सुन्दर वानरी बनाई और नन्द से पूछा-"क्या यह सुन्दरी है ?"वह बोला-"यह सुन्दरी से आधी सुन्दर है", फिर विद्याधरी बनाई और पूछा-"यह कैसी है?" नन्द ने कहा-"यह सुन्दरी जैसी है।" तत्पश्चात् मुनि ने देवी की विकुर्वणा की और भाई से पूछा-"यह कैसी है?" वह बोला-"यह तो सुन्दरी से भी सुन्दर है।" मुनि ने तब फिर कहा-"यदि तुम धर्म का थोड़ा-सा भी आचरण करो तो तुम्हें ऐसी अनेक सुन्दरियां प्राप्त हो सकती हैं।" मुनि के इस प्रकार प्रतिबोध से सुन्दरीनन्द का अपनी स्त्री में राग कम हो गया और कुछ समय पश्चात् उसने भी दीक्षा ले ली। अपने भाई को प्रतिबोध देने के लिए मुनि ने जो कार्य किया, वह उसकी पारिणामिकी बुद्धि थी।
१५. वज्रस्वामी-अवन्ती देश में तुम्बवन नामक सन्निवेश था। वहां एक धनी सेठ रहता था। उसके पुत्र का नाम धनगिरि था। उसका विवाह धनपाल सेठ की सुपुत्री सुनन्दा से हुआ। विवाह के कुछ ही दिनों पीछे धनगिरि दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गया, किन्तु उस समय उसकी स्त्री ने रोक दिया। कुछ समय पश्चात् देवलोक से च्यवकर एक पुण्यवान् जीव सुनन्दा की कुक्षि में आया। धनगिरि ने सुनन्दा से कहा-"यह भावी पुत्र आपका जीवनाधार होगा, अत: मुझे दीक्षा की आज्ञा दे दो।" धनगिरि की उत्कट वैराग्य भावना देख सुनन्दा ने दीक्षा की आज्ञा दे दी। आज्ञा मिलने पर धनगिरि ने आचार्य श्री सिंहगिरि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। इसी आचार्य के पास सुनन्दा के भाई आर्यसमित ने पहले ही दीक्षा ले रखी
थी।
नौ मास पूर्ण होने पर सुनन्दा की गोद को एक अत्यन्त पुण्यशाली पुत्र ने अलंकृत किया। जिस समय बच्चे का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था, उस समय किसी स्त्री ने कहा-"यदि इस बालक के पिता ने दीक्षा न ली होती तो अच्छा होता।" बालक बहुत मेधावी था, स्त्री के वचनों को सुनकर विचारने लगा कि-"मेरे पिता ने तो दीक्षा ले ली है, मुझे अब क्या करना चाहिए?" इस विषय पर चिन्तन-मनन करते हुए बालक को जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। वह विचारने लगा कि मुझे कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे मैं सांसारिक
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