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________________ वह अब पहले वाला स्थूलभद्र न था, जो उसके श्रृंगारमय कामुक प्रदर्शनों से विचलित हो जाये। वह तो कामभोगों को किम्पाक फल सदृश समझकर छोड़ चुका था। वह वैराग्य रंग से रञ्जित था। उसकी धमनियों में वैराग्य प्रवाहित हो चुका था। अत: वह शरीर से तो क्या मन से भी विचलित न हुआ। मुनि स्थूलभद्र के निर्विकार मुखमण्डल को देखकर वेश्या का विलासी हृदय शांत हो गया। तब अवसर देखकर मुनिजी ने कोशा को हृदयस्पर्शी उपदेश दिया, जिसे सुनकर कोशा को प्रतिबोध हो गया। उसने भोगों को दु:खों का कारण जान श्राविक वृत्ति धारण कर ली। वर्षावास की समाप्ति पर सिंहगुफा, सर्प-विवर और कुएं के किनारे चतुर्मास करने वाले मुनियों ने आकर गुरु के चरणों में नमस्कार किया। गुरुजी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा 'कृतदुष्करः' अर्थात् हे मुनियो ! आपने 'दुष्कर कार्य किया।' परन्तु जब मुनि स्थूलभद्र ने गुरु चरणों में आकर नमस्कार किया तब गुरु ने 'कृतदुष्कर-दुष्करः, का प्रयोग किया, अर्थात् हे मुने ! तुमने 'अतिदुष्कर कार्य किया है।' स्थूलभद्र के प्रति प्रयुक्त शब्दों को सुनकर सिंह गुफा पर चातुर्मास करने वाले मुनि को ईर्ष्याभाव उत्पन्न हुआ। जब अगला चतुर्मास आया तो सिंहगुफा में वर्षावास करने वाले मुनि ने कोशा वेश्या के घर पर चतुर्मास की आज्ञा मांगी, किन्तु गुरु के आज्ञा न देने पर भी वह चतुर्मास के लिए कोशा के घर पर चला गया। वेश्या के रूप-लावण्य को देखकर मुनि का मन विचलित हो गयां, वह वेश्या से काम-प्रार्थना करने लगा। . वेश्या ने मुनि से कहा-"मुझे एक लाख मोहरें दो।" मुनि ने उत्तर दिया-"मैं तो भिक्षु हूं, मेरे पास धन कहां?' वेश्या ने फिर कहा-"नेपाल का राजा प्रत्येक साधु को एक रत्नकंबल देता है, उसक मूल्य एक लाख रुपया है। तुम वहां जाओ और मुझे एक कम्बल लाकर दो।'' कामराग के वशीभूत वह मुनि नेपाल गया और कम्बल लेकर वापिस लौटा। परन्तु मार्ग में लौटते समय चोरों ने उससे वह छीन लिया। वह दूसरी बार फिर नेपाल गया और राजा से अपना वृत्तान्त कह कर पुनः कम्बल की याचना की। राजा ने उसकी प्रार्थना पुनः स्वीकार की और इस बार वह रत्नकम्बल को बांस में छिपाकर वापिस लौटा। मार्ग में फिर चोर मिले; वे उसे लूटने लगे। मुनि ने कहा-"मैं तो भिक्षु हूं, मेरे पास कुछ नहीं है।" उसका उत्तर सुन चोर चले गये। मार्ग में भूख-प्यास और चलने के कष्ट तथा चोरों के दुर्व्यवहार को सहन कर वेश्या को रत्नकम्बल लाकर समर्पण किया। कोशा ने रत्नकम्बल लेकर अशुचि स्थान पर फेंक दिया। यह देखकर खिन्न हुए मुनि ने कोशा से कहा-"मैंने अनेक कष्टों को सहकर यह कम्बल तुम्हें लाकर दिया है और तुमने इसे यों ही फेंक दिया।" वेश्या बोली-हे मुने ! यह सब-कुछ मैंने तुम्हें समझाने के लिए किया है। जिस प्रकार अशुचि में पड़ने से यह रत्नकम्बल दूषित हो गया है, उसी प्रकार काम-भोगों में पड़ने से तुम्हारी आत्मा मलिन हो जायेगी। मुने! विचार करो, जिन विषय-भोगों को विष के समान समझ कर तुमने ठुकरा दिया था, अब पुनः उस वमन को स्वीकार करना चाहते हो, यह तुम्हारे पतन का कारण है, * 345*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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