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के घर पर रहता है, वह इस पद का अधिकारी है।" श्रीयंक की बात सुन कर राजा ने अपने कर्मचारियों को आज्ञा दी कि "कोशा के घर जाओ और स्थूलभद्र को सम्मान पूर्वक लाओ, उसे मन्त्री पद दिया जायेगा।"
राजकर्मचारी कोशा के घर गये और स्थूलभद्र से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। पिता की मृत्यु का समाचार सुन कर स्थूलभद्र को अत्यन्त दु:ख हुआ। राजपुरुषों ने स्थूलभद्र से विनयपूर्वक प्रार्थना की-“हे महाभाग ! आप राजसभा में पधारें, महाराज आप को सादर बुला रहे हैं।" यह सुन कर स्थूलभद्र राज्यसभा में आया। राजा ने उसको सम्मान से आसन पर बिठलाया और कहा-"तुम्हारे पिताजी की मुत्यु हो चुकी है, अतः तुम मन्त्री पद को सुशोभित करो।" राजा की आज्ञा सुन कर स्थूलभद्र विचारने लगा-"जो मन्त्रीपद मेरे पिता की मृत्यु का कारण बना, वह मेरे लिए हितकर कैसे हो सकता है? माया-धन संसार में दुःखों का कारण और विपत्तियों का घर है। ठीक ही कहा गया है
"मद्रेयं खलु पारवश्यजननी, सौख्यच्छिदा देहिनां । नित्यं कर्कशकर्मबन्धनकरी, धर्मान्तरायावहा ॥ राजार्थंकपरैव सम्प्रति पुनः, स्वार्थप्रजार्थापहृत् ।
तब्रूमः किमतः परं मतिमतां, लोकव्यापायकृत् ॥" अर्थात्-यह धन स्वतन्त्रता का अपहरण करके परतन्त्र बनाने वाला है। मनुष्यों के सुख को नष्ट करने वाला है। सदैव कठोर कर्मबन्धन करने वाला है। धर्म में विघ्न डालने वाला है, और राजा लोग तो केवल धनार्थी होते हैं, वे अपने स्वार्थ के लिए प्रजा का धन हरण कर लेते हैं। हम मतिमानों को अधिक क्या कहें ! यह माया दोनों लोक में दुःख देने वाली है।
इस प्रकार विचार करते-करते स्थूलभद्र के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह आर्य सम्भूतविजय जी के पास आया और दीक्षा ग्रहण कर ली। स्थूलभद्र के दीक्षा ग्रहण करने पर श्रीयंक को मन्त्री बनाया गया और वह बड़ी कुशलता से राज्य को चलाने लगा।
मुनि स्थूलभद्र संयम धारण करने के पश्चात् ज्ञान-ध्यान में रत रहने लगे। ग्रामानुग्राम विचरते हुए स्थूलभद्र मुनि अपने गुरु के साथ पाटलिपुत्र पहुंचे। चातुर्मास का समय समीप देख गुरु ने वहीं वर्षावास बिताने का निर्णय किया। उनके चार शिष्यों ने आकर अलगअलग चतुर्मास करने की आज्ञा मांगी। एक ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने सर्प के बिल पर, तीसरे ने कुंए के किनारे पर और स्थूलभद्र मुनि ने कोशा वेश्या के घर पर। गुरु ने उन्हें आज्ञा दे दी और वे अपने-अपने अभीष्ट स्थान पर चले गये।
देर से बिछड़े हुए अपने प्रेमी को देखकर कोशा बहुत प्रसन्न हुई। मुनि स्थूलभद्र ने कोशा से वहां ठहरने की आज्ञा मांगी। वेश्या ने अपनी चित्रशाला में स्थूलभद्र जी को ठहरने की आज्ञा दे दी। वेश्या पूर्व की भान्ति श्रृंगार करके अपने हाव-भाव प्रदर्शित करने लगी। परन्तु
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