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________________ प्रवृत्तियां भिन्न थीं। अत: वह गुणविकल था। __एक समयं वे दोनों गुरु की आज्ञा से किसी ग्राम में जा रहे थे। रास्ते में दोनों ने बड़े-बड़े पाओं के चिन्ह देखे। पदचिन्ह को देखकर विचारशील विनयवान् शिष्य ने अपने गुरुभ्राता से पूछा-"ये पाओं के चिन्ह किसके हैं?" उत्तर में वह बोला-"मित्रवर ! यह भी कोई पूछने जैसी बात है? यह स्पष्ट ही हाथी के पदचिन्ह हैं।" विमृश्य भाषी शिष्य ने कहा-“भैया ! ऐसा मत कहो, ये पदचिन्ह हस्तिनी के हैं, और वह हस्तिनी वाम नेत्र से काणी है, उस पर कोई रानी सवार है तथा वह सधवा है और गर्भवती भी है एवं आजकल में ही उसके प्रसव होने वाला है, उसे एक पुत्र का लाभ होगा।" इस प्रकार कहने पर अविचारशील बोला-"तुम यह किस आधार से कह रहे हो?" विनयी बोला-"विश्वास का होना ही ज्ञान का सार है और यह तुम्हें आगे जाकर प्रत्यक्ष में स्पष्ट हो जायेगा।" ऐसा कहते हुए वे दोनों अपने निर्दिष्ट ग्राम में पहुंच गए। उन्होंने ग्राम के बाहर बहुत बड़े सरोवर के किनारे पर रानी के दल-बल का आवास (पड़ाव) देखा। उधर वाम नेत्र से काणी एक हस्तिनी दिखाई दी। उसी समय किसी दासी ने आकर मन्त्री से कहा-"महाराज को बधाई दीजिए, उन्हें पुत्र का लाभ हुआ है।" यह सब कुछ देख कर विनीत शिष्य ने दूसरे से कहा-"आपने दासी के वचन सुने?" वह बोला-"मैंने सब जान लिया, आपका ज्ञान अन्यथा नहीं है।" इसके बाद दोनों हाथ-पैर धोकर तालाब के किनारे वट वृक्ष के नीचे विश्राम के लिए बैठ गए। उसी समय एक वृद्धा सिर पर पानी का घड़ा रखे उनके सामने आई। उसने दोनों को देखकर विचारा-"ये अच्छे विद्वान प्रतीत होते हैं, तो क्यों न अपने विदेशगत पुत्र के बारे में पूछ लूं।" और तभी प्रश्न करते समय उसके सिर से पानी का भरा हुआ घट भूमि पर गिर गया और शतशः ठीकरियों में परिणत हो गया। उसी समय अविनीत बोल उठा-"बुढिया ! तेरा पुत्र भी घडे की भान्ति मृत्यु को प्राप्त हो गया है।" यह सुनकर विनयी बोला-"मित्र। ऐसा मत कहिए, इसका पुत्र घर आया हुआ है।" तब उसने वृद्धा से कहा, "माता ! घर जाओ और अपने पुत्र का मुख देखो।" यह सुन कर बुढ़िया पुनरुज्जीवित की भान्ति विनयी को शतशः आशीर्वाद देती हुई अपने घर चली गई। घर जाकर धूलि से भरे हुए पैरों सहित लड़के को देखा। पुत्र ने माता के चरणों में प्रणाम किया और मां ने उसे आशीर्वाद दिया तथा नैमित्तिक की बात उसे सुनाई। पुत्र को पूछकर बुढ़िया ने कुछ रुपये और वस्त्रयुगल उस विनयी शिष्य को भेंट स्वरूप अर्पण किए। - अविनीत यह सब देख कर दुःखित होकर अपने मन में सोचने लगा-"निश्चय ही गुरु ने मुझे अच्छी तरह नहीं पढ़ाया, अन्यथा मुझे भी ऐसा ही ज्ञान प्राप्त होता, जैसा कि इसको है।" गुरु का कार्य करके दोनों गुरु के पास वापिस पहुंचे। विनयी ने गुरु को देखते ही बद्धाञ्जलि सिर झुका बहुमान-पूर्वक आनन्दाश्रुओं से भरे नेत्रों से गुरु के पादारविन्दों में अपने सिर को रख कर नमस्कार किया, किन्तु दूसरा किञ्चिन्मात्र भी न झुका, अभिमान की अग्नि * 323 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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